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तृतीयशाखा-धर्मध्यान. १२७ पड सम्यक्त्व गमा देते है. सो संशयिक मिथ्यात्वी.
५"अनाभोग मिथ्यात्व'=ऐकांत जड मुढ, न कुछ समजे और न कुछ करे, धर्माधर्म के नामकों भी नहीं पहचाने, जैसे एकेंद्रीयादी जीव अव्यक्तव्य (अजाण) पणे मे है. सो अनाभोग मिथ्यात्वी.
मिथ्याका अर्थ झूटा होता है. अर्थात् सत्यको असत्य. और असत्यको सत्य श्रधे, सोही मिथ्यात्व है इसे बुद्धिको भ्रष्ट बना के आत्म हितका नाश करने वाला जानके ध्यानी त्यागते है.
यह धर्म ध्यानका आज्ञा विचय नामे प्रथम पायेका फक्त एकही गाथा का सविस्तर अर्थ यत्किंचित वरणव किया. इसमें से ज्ञेय (जाणने योग्य) को जाणे. हेय ( छोडने योग्य को) छोडे. उपादेय (आदर ने योग्यकों) आदरे अङ्गीकार करें.
औरभी भगवानकी आज्ञाका चिंतवन करेकी बहुतसे शास्त्रमें साधुओंके लिये फरमाया है. “संयमेणं तवसा अप्पाणं भाव माणे विहरइ " अर्थात् पांच स्थावर तीन बिक्वेंद्री; पचेंद्री, और अजीव(वस्त्र पात्र) इनकी यत्ना करे. मनादी त्रीयोग वसमें करे, सबके साथ प्रिती (मैत्री भाव) रक्वे सदा उपयोग युक्त प्रवृ ते दिनको द्रष्टीसे और रात्री को रजूहरणसें पूंज(झाडे)