________________
तृतीयशाखा-धर्मध्यान. १५१ और आयुष्य तो बेचारा स्वभाव से ही क्षिण २ में क्षय होता हैं, सर्वथा क्षय हुवा की, बाकी के तीनही उस के सात क्षय होजायेंगे; की फिर अपन सीधे शिव पूर में जाके, अजर, अमर, अबीकार हो; अक्षय, अनंत, परमसुख के भुक्ता बनेंगे.
अपाय विचया नामे धर्म ध्यान के दूसरे पाये के ध्याता, अनंतकाल से आपय करने वाले, कर्मशत्रू ओंका नाश करने का विचार, एकाग्रतासे तथा भूतहो चितवनाकरें. और कर्मवृधी के कामोंसे निवृती भाव धारनकर, आत्मा सुख के उपायमें संलग्न बन मोक्ष मार्ग में प्रवृतने सामर्थ्य बने वो कोई कालमें मुखके भुक्ता जरूरही होवेंगें.
तृतीय पल-"विपाक विचय"
हा! हाः त्या आश्चर्य कारक इल जगतका ब नाथ द्रष्टि आता है. जीव जीव जब एकसे हो, कोइ सुसी हो प्लोइ दुःखी, ऐसही, नीच, ऊंय, मूर्ख विद्वा न, वालिटी श्रीतघगैरे विधि स्वना दिखती है. इसाप्या पारज? जीव जना जारही सो बूरा न करे ! रिये बुरे उजद कराने बाळा, जीवके साथ दूसरा भी कोई है ? दूसरा कौन है ? ( जरा विचार
६
.