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तृतीयशाखा-धर्मध्यान. १८७ बर अंग होय-अर्थात् पद्मासन से बेठ के दोनो घुटने के बिचमें की डोर और दोनो खन्धे के बिच की डोरी बरोबर आवे. तैसे वोही डोरी वांहा खन्धा और वाये घुटनेके बिच, और डावे खन्धा और ढावे घुटने के विच बरोवर आवे. जैसे अब्बी कित्नीक जैन मी का बनाते है. सो 'समच उरस संस्थान' २ जैसे बट (बड) का झाड. नीचे तो फक्त लक्कड का ठूठ रंढ मुंढ दिखता है, और उपर शाखा प्रतिशाखासें शोभे तैसेही कम्मर के नीचे का सरीर अशोभनीक, और उपरका सरीर शोभनीक होवें, सो 'निगोह परिमंडल' संस्थान.३ जैसे खुरशाणी अम्बली, उपरको तो टुंठा नि कल जाय,और नीचे शाखा प्रतिशाखा कर शोभे. तैसेही उपरका सरीरतो अशोभनीक, और कम्मरके नीचेका सरीर शोभनीक लगे, सो 'सादी संठाण' ४बावन ठिगना (छोटा) सरीर होयसो 'बावना संस्थान' ५ पीठषे तथा छातीपे कुबड निकले सो 'कुवडा संठाण' ६ आधा जला मुर्दाका जैसा सब सरीर खराब होय, सो 'हुंड संठाण'.
इन ६ संस्थान मेंसे नर्क पांच स्थावर तीन बिक्लेंद्री और असन्नी तिर्यंच पचेंद्री मे फक्त १ हुंड सं. स्थान पावे. सन्नी मनुष्य और सन्नी तिर्यंचमें ६ ही संस्था न पावे. और सब देवता तिर्थकर, चक्रवृति, बलदेव,