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ध्यानकल्पतरू, से कषायादी आत्माके साथ युद्ध करनेसेही आत्मा सुख पाती है.
“अपाय विचय" धर्म ध्यान के ध्याता ऐसा वि चारे की, मेरा जीव सदा सुख चाहता है; अनंत भव हुये, सुखके लिये तडफ रहा हूं. अनेक उपाय करते भी अपाय होता हैं, कीहुइ मेहनत निर्फल होती है. इसका क्या कारण? यह मेरे उपाय को नष्ट कर मेरे को प्राप्त होते हुयें, मेरे पास रहे, अनंत अक्षय अव्यावाथ सुखकी व्याघात करने वाला शत्र हे ही कौन ? हां! इला निश्चय तो हुवा की वो शत्रुओं बाहिरका कोइ पदार्थ नहीं हैं. क्योंकि बाहिर होयतो, मुजे दुःख देने आते हुये द्रष्टी आते. मेरे शवओं तो मेरे घरमें ही घर कर बैठे हैं. [ठीक हुवा दुढनेका प्रयास घटा] आश्चर्य के इस्ने दिन मुजे क्यों नहीं दिखे? पर कहां से दिखे, क्योंकि मै तो आजतक इनको देखने स्व घर छोड पर घरमें भटकता फिरा और वो अन्दर रहे, मेरे उपायोंको नष्ट करते रहें. अच्छा अब तो मेरी भूल शू धारू, अंदर रहे बाह्य मित्र और अंतरिक शओंको अ ब्छी तरह पहचानने बाह्य झष्टी बंद करूं. क्योंकि भगचानने फरमाया है "एक समयने दो कार्य न हो।" रिसा विचार आँख मीच अन्दर अवलोके] अहो! यह