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तृतीयशाखा-धर्मध्यान
१२९ तप और ऐश्वर्य (मालकी) यह ८ प्रकारकी उत्तमता जीवोंकों पुण्योदयसे होती हैं, और इनका मद अभी मान करके जो संयम वृत ब्रम्हचार्य परोपकारादी में नहीं लगाते हैं; तथा कुछेक अच्छे कार्यके प्रभावसे यत्किंचित कीर्तीवंत हो, विचारते है की में पण्डित हूं. शुद्धाचारी हूं. वक्ता हूं सब जन मुजे सरकार सन्मान देते हैं. मैं जगत्प्रसिद्ध हूं. सरस्वति कंठा भरण, वादी विजय, वगैरे उपाधियों मुजे मिली है. किंबहूमें एक अद्वितिय महात्मा हूं. ऐसे विचारसे जो भरा हो. या स्वमुखसे कहता हो, वो ज्ञानादी गुणसे नष्ट हो भ्रष्ट बनता है. अभीमानी अपने किंचित् सगुणको मेरु तुल्य देखता हैं, और अन्यके अपार गुणको तथा अपने अपार दुर्गुणोको राइ तुल्य किंचित समजता है, इस लिये वो अपना उद्वारा नहीं कर सक्ता है. इत्या दी दुर्गुणोंसे मद भरा है. इस लिये इसे मद-मदिरा (दारू) के नाम से बोलाया है.
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२ "विषय " = शब्द, रूप, गंध, रस और स्पर्य इन पांचही की पूर्णता पुण्योदयसे होती है. इने जो गुणी गुण उच्चार, साधू दर्शन, तप वगैरे सत्कार्य में नहीं लगा. ते विभत्सशब्दोचार, रूप अवलोकन, गंधग्रहण, अभक्ष भक्षण, और भोग विलाशमें लगाके नष्ट करते हैं