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तृतीयशाखा-धर्मध्यान ११३ यह ४ बन्धका का स्वरूप मोदक (लड) के द्रष्टांत से कहते हैं.
(१) 'प्रकृतीबन्ध' का स्वभाव-जैसे सूठादिक से निपजें मौदकका स्वभाव होता है की; वायुनामें रोगका नाश करना; तैसे ज्ञानावरणी कर्मका स्व. भाव है की; ज्ञानकू ढकना. २ दर्शनावरणी कर्मका दर्शनको ढकना, ३वेदनीसे निराबाध-सुखकी हानी, ४मोहणीसे सम्यक्त्वकी हानी, ५ आयुष्यसे अजरा मर पदकी हानी. ६ नाम कर्मसे अरूपी पदकी हानी, ७ गोत्रकर्मसें अखोडकी हानी, और ८ अंतराय कर्मसें अनंत शक्तीकी हानी होती है.
(२) 'स्थिती बंध'का स्वभाव, जैसे वो मोदक महीनादी काल तक टिकतें हैं. तैसे ज्ञानावरणी, दर्श. नावरणी, वेदनी, अंतराय, यह उत्कृष्ट ३० क्रोडाकोड सागर. मोहक ७० क्रोडाकोडी सागर आयुष्यकी ३३ सागर और नाम तथा गोत्र कर्मकी उत्कृष्ट तिथी२० क्रोडाक्रोड सागरकी हैं. (३) 'अनुभाग बन्ध' का स्व भाव, जैसे उन मोदकमें कोइ कडूवा होवे, कोइ मीठा होवे. तैसें ज्ञानावरणी, सूर्यको बद्दल ढके जैसा. दर्शनावरणी-आँखका पट्टा बन्धे जैसा. वेदनी-मद्य(सेहत ) भरी तरवार चाटे जैसा, मोहनी-मदिरा