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तृतीयशाखा-धर्मध्यान
११९ तान बन्धी माया = वांशकी जड जैसी (गांठमैं गांठ) ४ अन्तानबन्धी लोभ = किरमजी रंग जैसा ( जले तो भी न जाय ) [ ये मिथ्यात्वी नर्क में जाय ] ५ अप्रत्याख्यानी क्रोध = धरती की तराड (बर्षाद सें मिळे) ६ अप्रत्याख्यानी मान = काष्ट स्थंभ (मेह - नत से नसें ) ७ अप्रत्याख्यानी माया - मीढाका शृंग ( आंटे दिखे ) ८ अप्रत्या ख्यानी लोभ = खंज्जरका रंग ( क्षार से निकले ) ९ [ ये देशवृत घाती. तियंच में जाय] प्रत्या ख्यानी क्रोध = रेती की लकीर, हवा से मिले. १० प्रत्याख्यानी मान = बेंत स्थंभ ( नमाये नमें ) ११ प्रत्याख्यानी माया -- चलते बेले का मुत्र (बांक साफ दिखे ) प्रत्याख्यानी लोभ - कादवका रंग (सूखनें से अलग हो ) [ यह सर्व वृत धातिक मनुष्य होय. ]१३ संज्जलका क्रोध - पाणी की लकीर. १४ 'संज्जलकामान - वणस्थंभ १५ संज्वलकी माया - बांशकी छूती. १६ सज्जलका लोभ - पंतगका रंग ( यह केवल ज्ञानका घातीक, देवता होय) १७ 'हांस' - हँसे, १८' रती' खुशी, १९ 'अरती' - उदासी. १० 'भय' - डर. २१ 'शोक' चिन्ता, २२ दुगंच्छा. २३ स्त्रीवेद. २४ पुरुष वेद. २५ नपुंशक वेद, यह पच्चीसही कषाय कर्मके रसको आ* १ गाडीके पइडेका ओंगन.