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तृतीयशाखा-धर्मध्यान १२३ न्हे सत्देव माने, और इन१८ दोष रहित अरिहंत देव हैं उन्हे कूदेव माने. ऐसेही हिंशा, झूट, चोरी, मैथुन, परिग्रह, पचेंद्रीके विषय भोगी चार कषायमें उनमत्त इन दुर्गुण युक्त ज्ञान दर्शक चारित्र तप विर्य[पचाचार इर्या, भाषा, एषणा अदान निक्षेपना, परिठावणिया (यह सुमती) मन, बचन, काय, की गुप्ती इन सद्गुणो रहित उनको गुरु माने. हिंशा, झूट, चोरी, मैथुन, परिग्रह कोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, क्लेश, चुगली निंदा हर्ष; शोक रात्री भोजन मिथ्यात् यह अठा रह कामोंमें धर्म माने, और इससे सुलट जो हैं उसे अ धर्म माने. ऐसे तीनही कुतत्वका पक्का कदाग्रह धारण किया पूछे से कहे हमारी पीडीयों से यह धर्म चला आता है. इसे हम कदापि नहीं छोड़ेंगे. ऐसा हठ ग्राही होवे सो अभिग्रह मिथ्यात्वी.
२ “अनाभिग्रह मिथ्यात्व”=सूदेव. कुदेव सुगुरु कूगुरू, सुधर्म, कुधर्म सबको एकसा (सरीखा) समजे के वंदे पूजे सत्यासत्य का निर्णय नहीं करे, कोइ समजाय तो कहेकी अपनको इस झगडेसे क्या मतलब, सव महजबमें बडे २ विद्वान गुणवान बैठे हैं. तो किसे झुटा कहे सब अच्छे हैं.
३ “अभिनिवेशिक मिथ्यात्व” कूदेव, गुरु, धर्म