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तृतीयशाखा-धर्मध्यान १०३ । गमन करते हुये पंक्तीये निसरणी रुप हैं. .
“पञ्चेन्द्री योपशमता.”
१ श्रोतेंद्री='कानका स्वभव जीव, अजीव, औ र मिश्रके शब्द ग्रहण करने का हैं, इसके वशमें पड मृगपशु मारा जाता हैं. २ 'चक्षु इन्द्री'=अँखका स्वभाव काला-हरा-लाल-पीला और श्वेत, रुपको ग्रहण करनेका हैं, इसके वशमें पडके पतंग मारा जाता हैं. ३ 'घणेन्द्री' नाकका स्वभाव सुर्मिगंध और दुर्भिगंध कों ग्रहण करनेका हैं. इसके वशमें पड भ्रम्रपक्षी मारा जाता हैं. ४ 'रसेंन्द्री' जिव्हाका स्वभाव-खट्टा-मीडा-तीखा-कड-कषायला, रसकों ग्रहण करनेका हैं. इसके वशमें पड़ मच्छी मारी जाती हैं. ५ 'स्परझेंद्री'= कायाका स्वभाव हलका-भारी-ठन्डा-उन्हा-लुक्खा-चि. कना-कोमल-खरदरा स्पॉकों ग्रहण करनेका हैं. इ. सके वशमें पडके हाथी माराजाता है. अब जरा सोचीए, एकेक इन्द्रिके वश्यमें पडे, उनकी अकाल मृत्यू हुइ; तो जो पांचही इन्द्रिके वशमें पडे हैं. उनका क्या हाल होगा? कृतकर्मका बदला दुर्गतिमें जाके अवश्यही भोगवेंगे. . अज्ञानसें जीव दुःखरूप इन्द्रियोंके विषयमें सुख मा