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उपशाखा - शुभध्यान.
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उन्हे तो सर्व क्षेत्र - द्रव्य-काल अनुकूलही होता हैं. चतुर्थ पत्र - "भाव "
७ 'अशुद्ध भाव' अशुभ या अशुद्ध भावका वरणव, आर्त और रौद्रध्यान में बताया वोही समजना विषय, कषाय, आश्रव, अशुभयोग, असमाधी, चपलता, विकलता, अधैर्यता, नास्तिकता, कठोरता, राग द्वेष रूप प्रणति. बगैरे सर्व अशुभ जोग गिणे गये हैं. इन से भावोंकी मलीनता होती हैं.
८ शुभ, भाव, ४ प्रकारके हैं. सो— मैत्री प्रमोदकारूण्य, मध्यस्थानि नियोजयेत् धर्मध्याने सुपरकर्ते, तद्वितस्यरसायनं
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अर्थ - १ 'मैत्री भाव' २ प्रमोदभाव, ३ करुणा भाव, ४ और मध्यस्तभाव, इन चारोंही भाव संयुक्त होनेसें, धर्म ध्यानकी रासायन ( हूबहू - स्वाद) पैदा होती हैं.
१ मैत्री भाव - “मिति में सव्व भूएसु, वेर मझं न केणइ” अर्थात् सर्व जीव मेरे मित्र (दोस्त) हैं, सूत्र- - मैत्री करूणा मुदितो पेक्षाणां सुख दुःख पुण्यापुण्य विषयाणां भावना तश्वित प्रसादनम. ३३ योगदर्शन. अर्थ- सुख। प्राणीयोंमे मित्रता, दुःखीमे दया. धर्मात्मा हर्ष, और पायोंपे मध्यस्त वती. इस तरें व्रतनेसे चित प्रसन्न रहता हैं.