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ध्यानकल्पतरू, र्जन करते हैं. कंकरकी खरीदमें चिंतामणी रन, और विषकी खरीदमें अमृत देते हैं, सुधारके स्थान बीगाडा करते हैं, हे प्रभू ? इन बेचारे अनाथ पामर जीवोंकी इन कुकृतव्यके फल भोगवते, क्या दिशा होयगी? कैसी वीटंबणा पायंगे! तब कैले पश्चाताप करेंगे? परन्तु इन बेचारे जीवोंका क्या दोष हैं, यह तो सब कामअच्छेके लियेही करते हैं, सुखके लियेही खपते हैं, परन्तु इनके अशुभ कर्म इनको सद्बुद्धी उपजने नहीं देते है. जैसा २ जिनका भव्य तव्य (होनहार) होय, वैसा २ही बनाव बनारहताहै.इत्यादी विचार मध्यस्त पणे उपेक्षा-उदासीनतासें करे सो मध्यस्त भावना. . इन चारही भावनाको भावते(विचारते) हुये और इसमें कहे मुजब प्रवृतते हुये जीव, राग, द्वेष, विषय, कषाय, क्लेश, मोहादी शत्रओंका नाश करने सामर्थ (शक्तवंत) होते है. यह भावना भावनेवालके हृदयमें, उक्त शत्रकों प्रवेश करनेका अवकाश (फुरसत) ही नहीं मिलशक्ता है।
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* योग दर्शन ग्रन्थमें पतञ्जली ऋषिने योगके — अंग कहे हैं. ' यमनियमासन प्राणायाम प्रत्यहार धारणा ध्यान समाधयो अष्टाचङ्गानि" १ यम, २ नियम, ३ आसन, ४ प्राणायाम, ५ प्र