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तृतीयशाखा-धर्मध्यान ८९ दिक स्पर्त्य रस और घ्राण इन्द्रिय वाले जीव. (४) 'चौरद्रि' जो माक्षिकादिक स्पर्म्य, रस, घाण, और चक्षु इन्द्रिय वाले जीव. (४) और 'पर्चेद्रिय' जो म. च्छादि जलचर, (पाणीमें रहे) पशू (पृथवीपे रहे) गायादी स्थलचर, हंसादी पक्षी खेंचर, (आकाशमें उडे) तथा नरक मनुष्य और देवता स्पर्य, रस, घ्राण, चक्षु और श्रोतेंद्रीवाले जीव. इन सिनाय अनेंद्री जीव केवली भगवानकों और सिद्ध भगवानको कहते हैं.' __ ३“काए" काया, सरीरको कहते हैं, वह जीवयुक्त काया ६ हैं- (१) 'पृथ्वी काय' (मट्टी) (२) 'अपकाय' (पाणी) (३) 'तेउकाय' (अग्नी) 'वाउकाय' (वायूहवा) (४) 'वनास्पति' (सबजी-लीलोत्री) [यह पांच एकेंद्री हैं] और (६) 'त्रसकाय' (हलते चलते बेंद्रीय से लगा पचेंद्रिय पर्यंतके जीव).
४ “जोए” जोग-दूसरेसे सम्बन्ध करे वह जोग ३ हैं. (१) 'मन योग' (अंतःकरणका विचार) (२) व. चन योग' (शब्दउञ्चार)(३) 'कायायोग (प्रतक्षसरीर)
५“ए” वेद विकारका उदय वह वेद ३ * केवल ज्ञानीने अनंत कालके शब्दादी विषयको पहलेही जान रखे हैं इस लिये उनके कर्णादी अव्यय रुप हैं. उनके विषयसे उन्हे कुछ प्रयोजन नहीं है।