________________ सीमांसकों के मतानुसार - इन्द्रियों का संप्रयोग होने पर पुरुष के उत्पन्न होने वाली बुद्धि को प्रत्यक्ष कहते हैं।' इन सब प्रत्यक्ष प्रमाणों के स्वरूपों को देखकर एवं समझकर आचार्य अकलंक स्वामी ने समस्त दर्शनों को एक अन्य प्रत्यक्ष प्रदर्शित किया, जो सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष नाम से जाना गया। परोक्ष प्रमाण को ही आचार्य अकलंक स्वामी ने सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष. के नाम से द्योतित किया है। आगे जीव के स्वरूप में और विशेषता बताते हुए आचार्य भावसंग्रह में लिखते हैं कि यम्हि भवे जे देहं तम्हि भवे तप्पमाणओ अप्पा। संहार वित्थरगुणो केवलणाणीहिं उद्दिट्ठो।295।। अर्थात् इस संसार में परिभ्रमण करता हुआ वह आत्मा अनेक योनियों में अनेक प्रकार के छोटे-बड़े शरीर धारण करता है। शरीर के प्रमाण के समान ही आत्मा का आकार हो जाता है। इसका कारण है कि आत्मा में संकोच विस्तार की शक्ति है ऐसा केवलज्ञानियों के द्वारा कहा गया है। संकोच गुण से यह निगोदिया जीव की पर्याय को भी धारण कर लेता है और विस्तार गुण से यह महामत्स्य के शरीर को भी धारण कर लेता है। आत्मा के प्रदेश तो असंख्यात ही होते हैं। उन्हीं असंख्यात प्रदेशों को वह सिकोड़ लेता है और विस्तार कर लेता है। इस संकोच और विस्तार में आत्म-प्रदेशों के प्रमाण में कोई भी कमी या बढ़त नहीं होती है। इसी विषय को आचार्य नेमिचन्द्रस्वामी ने भी द्रव्य संग्रह में उल्लेख किया अणु गुरु देह पमाणो उवसंहारप्पसप्पदो चेदा। असमुहदो ववहारा णिच्छयणयदो असंखदेसो वा10॥ अर्थात् व्यवहारनय से समुद्घात को छोड़कर संकोच विस्तार गुण के कारण यह छोटे और बड़े अपने शरीर प्रमाण है और निश्चयनय से यह असंख्यात प्रदेश वाला है। जीव के स्वरूप को अन्य अपेक्षा से बताते हुए आचार्य देवसेन स्वामी लिखते हैं कि ' सत्संप्रयोगे पुरुषस्येन्द्रियाणां बुद्धिजन्मतत्प्रत्यक्षम्। मी. द. 1/1/4 36 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org