________________ केवलज्ञान। इस प्रकार ये ज्ञानोपयोग के आठ भेद हो जाते हैं। इनमें मतिज्ञान, श्रुतज्ञान ये परोक्ष ज्ञान हैं और अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान एवं केवलज्ञान ये प्रत्यक्षज्ञान हैं। परोक्षज्ञान - 'उपात्तानुपात्तपरप्राधान्यादवगमः परोक्षम्" अर्थात् उपात्त, अनुपात्तरूप प्रधानता से जो ज्ञान होता है वह परोक्ष कहलाता है। उपात्त इन्द्रियाँ और मन तथा अनुपात्त-प्रकाश, उपदेशादि को 'पर' कहते हैं और पर (इन्द्रिय, मन, प्रकाश. उपदेश आदि) के निमित्त होने वाले अर्थावबोध को परोक्षज्ञान कहते हैं। जैसे गमनशक्ति से युक्त और स्वयमेव गमन करने में असमर्थ भी पुरुष का लाठी आदि की सहायता से गमन होता है, उसी प्रकार मति एवं श्रुतज्ञानावरण का क्षयोपशम होने पर भी स्वयमेव पदार्थों को जानने में असमर्थ 'ज्ञ' स्वभाव आत्म इन्द्रियाँ, मन और प्रकाशादि पर प्रत्यय (कारण) की प्रधानता से ज्ञान होता है। वह परायत्व (पर के निमित्त) होने से मतिज्ञान और श्रुतज्ञान परोक्ष कहलाता है। प्रत्यक्ष - 'इन्द्रियानिन्द्रियानपेक्षमतीतव्यभिचारं साकारग्रहणं प्रत्यक्षम् अर्थात् इन्द्रिय और मन की अपेक्षा के बिना व्यभिचार रहित जो साकार ग्रहण होता है उसे प्रत्यक्ष कहते हैं। चक्षु आदि पाँच इन्द्रियाँ और अनिन्द्रिय (मन) है उनमें जिसकी अपेक्षा नहीं है। 'अतत्' को 'तत्' रूप से ग्रहण करने का ज्ञान व्यभिचार है - जिसके व्यभिचार नहीं है वह अव्यभिचार है अर्थात् प्रत्यक्ष ज्ञान तत् को 'तत्' स्वरूप जानता है। आकार का अर्थ विकल्प या भेद है। आकार के साथ है उसे साकार कहते हैं। वह अतीन्द्रिय अव्यभिचारी और साकार ग्रहण करने वाला ज्ञान प्रत्यक्ष कहलाता है। 'अक्षं प्रति नियतमति परापेक्षानिवृत्तिः” अक्ष के प्रति नियत हो और जिसमें पर की अपेक्षा न हो 'अक्ष्णोति' जो जगत के सारे पदार्थों को प्रत्यक्ष करता है वह अक्ष-आत्मा, जो ज्ञान प्रक्षीणावरण या क्षयोपशम प्राप्त आत्म मात्र की अपेक्षा से होता है वह प्रत्यक्ष है, प्रत्यक्ष का व्युत्पत्ति अर्थ करने से इन्द्रिय और मन रूप पर की अपेक्षा की निवृत्ति हो जाती है। राजवार्तिक 1/1116 राजवार्तिक 1/12/1 राजवार्तिक 1/12/2 34 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org