________________ प्रत्यक्ष प्रमाण को प्रत्येक दर्शन ने स्वीकार किया है और अपने-अपने अनुसार त्यक्ष को परिभाषित भी किया है जिनमें से कुछ दर्शनों का प्रत्यक्ष प्रमाण उनके मतानुसार प्रस्तुत करते हैंबौद्धमत के अनुसार - 'इन्द्रियनिमित्त ज्ञान प्रत्यक्ष है" उससे विपरीत ज्ञान परोक्ष है।' बोट कल्पनापोढ अर्थात् निर्विकल्पक ज्ञान को प्रत्यक्ष कहते हैं। नाम, जाति आदि की योजना को कल्पना' कहते हैं। इन्द्रियाँ असाधारण कारण हैं, अतः चाक्षुष प्रत्यक्ष, रासन प्रत्यक्ष आदि रूप से इन्द्रियों के अनुसार प्रत्यक्ष का नामकरण हो जाता है। - इसके उत्तर में आचार्य कहते हैं कि यदि इन्द्रियजन्य ज्ञान को प्रत्यक्ष मान लेने पर आप्त के प्रत्यक्ष ज्ञान का अभाव हो जायेगा। यदि इन्द्रियनिमित्त से होने वाले ज्ञान को प्रत्यक्ष ज्ञान स्वीकार किया जाय तो आप्त (सर्वज्ञदेव) इन्द्रिय के निमित्त से पदार्थों के ज्ञान का अभाव है, यदि आप्त के भी इन्द्रियनिमित्त ज्ञान मानेंगे तो आप्त के असर्वज्ञपना हो जायेगा। नैयायिकों के मतानुसार - इन्द्रिय और अर्थ के सन्निकर्ष से उत्पन्न होने वाले अव्यपदेश-निर्विकल्पक अव्यभिचारी और व्यवसायात्मक ज्ञान को प्रत्यक्ष कहते हैं।' वैशेषिक दर्शन के मतानुसार - आत्मा, इन्द्रिय, मन और पदार्थ के सन्निकर्ष से होने वाले ज्ञान को प्रत्यक्ष कहते हैं। सांख्यदर्शन के मतानुसार - श्रोत्रादि इन्द्रियों की वृत्ति को प्रत्यक्ष कहते हैं अर्थात् ज्ञानेन्द्रियों का अपने अपने विषय के साथ जो संयोग है, उससे उत्पन्न ज्ञान प्रत्यक्ष होता इन्द्रियनिमित्तं ज्ञानं प्रत्यक्षं तद्विपरीतं परोक्षम्। प्रत्यक्षं कल्पनापोढं नामजात्यादियोजना। असाधारणहेतुत्वादक्षैस्तद् व्यपदिश्यते।। जातिः क्रिया गुणो द्रव्यं संज्ञा पञ्चैव कल्पना। इन्द्रियार्थसन्निकर्षोत्पन्नं ज्ञानमव्यपदेश्यमव्यभिचार व्यवसायात्मकं प्रत्यक्षम्। न्यायसू. 1/1/4 आत्मेन्द्रियमनोऽर्थसन्निकर्षाद्यनिष्पद्यते। श्रोत्रादिवृत्तिः प्रत्यक्षम्। प्रतिविषयाध्यवसायो दृष्टः। सांख्यकारिका 35 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org