________________ सक्ष्मतर द्रव्य का विषय होने से भाव विशुद्धि भी विपुलमति की अधिक है। पकष्ट क्षयोपशम विशुद्धि भाव के योग के कारण अप्रतिपाती होने से भी विपुलमति विशिष्ट है - प्रवर्द्धमान चारित्र वाला ही विपुलमति का स्वामी होता है, कषाय के उद्रेक से हीयमान चारित्र वाला स्वामी होने से ऋजुमति प्रतिपाती है। यहाँ एक तालिका के द्वारा मन:पर्ययज्ञान और अवधिज्ञान में विशेषता प्रदर्शित करते हैं अवधिज्ञान मन:पर्ययज्ञान विशुद्धि - मन:पर्ययज्ञान की अपेक्षा कम अवधिज्ञान की अपेक्षा ज्यादा क्षेत्र - ज्यादा (अधिक) कम (अल्प) स्वामी - अधिक, चारों गतियों के जीवों में प्राप्त है। संयमी मुनिराज के ही होता है विषय - अधिक एवं स्थूल अल्प एवं सूक्ष्म केवलज्ञान - जो तीनों कालों में तीनों लोकों के समस्त द्रव्य की समस्त पर्यायों एक समय में एक साथ जानता है उसे केवलज्ञान कहते हैं। इनमें मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान, विपर्यय अर्थात् विपरीत भी होते हैं। कुमतिज्ञान, कुश्रुतज्ञान, विभङ्गावधिज्ञान (कुअवधिज्ञान)।' इस प्रकार से ज्ञानोपयोग के 8 भेद हो जाते हैं। आचार्य नेमिचन्द्र स्वामी ने भी उल्लिखित किया है णाणं अट्ठ वियप्पं मदिसुद ओही अणाणणाणाणि। मणपज्जय केवलमवि पच्चक्ख परोक्ख भेयं च॥ अर्थात् ज्ञानोपयोग के आठ भेद हैं - मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान और इन तीनों के विपरीत कुमतिज्ञान, कुश्रुतज्ञान, विभङ्गावधि (कुअवधि) एवं मनः पर्ययज्ञान और मतिश्रुतावधयो विपर्ययश्च। त. सू. 1/31 बृ. द्र. सं. गा. 5 33 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org