________________ मणपज्जयं च दुविहं रिउ विउलमड़ तहेव णायव्वं। केवलणाणं एक्कं सव्वत्थ पयासयं णिच्चं।' अर्थात् मनःपर्यय ज्ञान के दो भेद हैं, एक ऋजुमति और दूसरा विपुलमति। केवलज्ञान एक है, नित्य है, अनन्तकाल तक रहता है और लोक-अलोक सबको प्रकाशित करता है। ऋजमति - 'ऋज्वो मतिर्यस्य सोऽयमजुमतिः' जिसकी मति ऋजु है उसको ऋजुमति , कहते हैं। विपलमति - 'अनिर्वर्तिता कुटिला च विपुला। अनिर्वर्तितवाक्कायमनस्कृतार्थस्य परकीयमनोगतस्य विज्ञानात्। विपुला मतिरस्य स विपुलमति:।' अनिवर्त या कुटिल को विपुल कहते हैं, क्योंकि परकीय मनोगत अनिर्वर्तित या बक्र मन-वचन-काय सम्बन्धी पदार्थ को जानता है वह विपुलमति मन:पर्ययज्ञान है। ऋजुमति और विपुलमति मन:पर्ययज्ञान इन दोनों में परस्पर विशेषता है जिसका उल्लेख नीचे किया जा रहा है। विशुद्धि और अप्रतिपात की अपेक्षा इन दोनों में विशेषता है। विशुद्धि - 'तदावरणकर्मक्षयोपशमे सति आत्मनः प्रसादो विशुद्धिः।' ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम होने पर आत्मपरिणामों में जो निर्मलता आती है उसको विशुद्धि कहते हैं। .. प्रतिपात - 'प्रतिपतनं प्रतिपात:' प्रतिपतन का नाम है प्रतिपात। चारित्र मोहनीय कर्म के उद्रेक से संयम के शिखर से च्युत हुए उपशान्त कषायी के मन:पर्ययज्ञान का प्रतिपात होता है, परन्तु क्षीण कषायी 12वें गुणस्थानवर्ती के प्रतिपाती कारणों का अभाव होने से अप्रतिपाती है। विपुलमति विशुद्धतर और अप्रतिपाती है। विशुद्धि की अपेक्षा ऋजुमति से विपुलमति द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा विशुद्धतर है। द्रव्य की अपेक्षा सर्वावधि के विषयभूत कार्माण द्रव्य का अनन्तवां भाग ऋजुमति मन:पर्यय ज्ञान का विषय है और ऋजुमति के द्रव्य का अनन्तवां भाग विपुलमति मन:पर्यय ज्ञान का विषय भा. सं., गा. 293 विशुद्ध्यप्रतिपाताभ्यां तद्विशेषः। त. सू. 24 32 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org