________________ - अनवस्थित - सम्यग्दर्शनादि गुणवृद्धिहानियोगात् यत् परिमाण उत्पन्नस्ततो वर्धते यावदनेन वर्धितव्यं हीयते च यावदनेन हातव्यं वायुवेग प्रेरितजलोर्मिवत्। अर्थात् जिस परिमाण में उत्पन्न हुआ अवधिज्ञान, सम्यग्दर्शनादि गुणों की वृद्धि एवं हानि के कारण वायु से प्रेरित जल की तरंगों के समान जहाँ तक घट सकता है वहाँ तक घटता रहे और जहाँ तक बढ़ सकता है वहाँ तक बढता रहे, वह अनवस्थित अवधिज्ञान है। जो चन्द्रमण्डल की तरह कभी कम कभी अधिक हो जाये उसे अनवस्थित अवधिज्ञान कहते हैं। 5. वर्धमान - 'अरणिनिर्मथनोत्पन्नशुष्कपत्रोपचीयमानेन्धननिचयसमिद्धपावकवत् सम्यग्दर्शनादिगुणविशुद्धपरिणामसन्निधानाद् यत् परिमाण उत्पन्नस्ततो वर्धते आअसंख्येयलोकेभ्यः।' सम्यग्दर्शनादि गुणों की विशुद्धि के कारण अरणी के. निर्मथन से उत्पन्न शुष्क पत्रों से उपचीयमान ईंधन के समूह में वृद्धिंगत अग्नि के . समान बढ़ता रहता है वह वर्धमान अवधिज्ञान है। वह असंख्यात लोक परिमाण तक बढ़ता रहता है। जो शुक्लपक्ष के चन्द्रमा की तरह अपने अन्तिम स्थान तक बढ़ता जाए उसे वर्धमान अवधिज्ञान कहते हैं। 6. हीयमान - 'परिच्छिन्नोपादानसन्तत्यग्निशिखावत् सम्यग्दर्शनादिगुणहानिसंक्लेश परिणामविवृद्धियोगात् यत्प्रमाण उत्पन्नस्ततो हीयते आ अगुलस्याऽसंख्येयभागात् इति।' अर्थात् जो ईंधन रहित अग्नि के समान जिस परिणाम से उत्पन्न हुआ था उससे प्रतिदिन सम्यग्दर्शनादि गुणों की हानि, संक्लेश परिणाम की वृद्धि के योग से अंगुल के असंख्यात भाग तक घटता रहे वह हीयमान अवधिज्ञान है। जो कृष्णपक्ष के चन्द्रमा की तरह अन्तिम स्थान तक घटता जाये उसे हीयमान अवधिज्ञान कहते हैं। इस प्रकार से अवधिज्ञान के 6 विकल्प होते हैं। दूसरी प्रकार से भी अवधिज्ञान के तीन भेद हैं, जो आचार्य देवसेन स्वामी द्वारा भी भावसंग्रह में उल्लिखित हैं-1. देशावधिज्ञान 2. परमावधिज्ञान 3. सर्वावधिज्ञान।' भावसग्रह, गाथा 292 30 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org