Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
View full book text
________________
वि० सं० ३७०-४०० वर्ष ]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
१-एक सधवा ओरत कि जिसके पुत्र होने का स्वभाव है और पति भी पास में है उसके पुत्र की प्राप्ती जल्दी होती है ।
२-सधवा ओरत है पुत्र होने का स्वभाव भी है पर उसका पति घर पर नहीं जब पति घर पर आवेगा तब पुत्र होगा। अतः पुत्र होने में विलम्ब है।
३-विधवा औरत है पुत्र होने का स्वभाव है पर उसका पति गुजर गया है इसके कभी पुत्र होगा ही नहीं केवल पुत्र होने का स्वभाव जरूर है।
४-चौथी सधवा है पर बांझ है । उसका पति चाहे घर पर हो चाहे प्रदेश में हो उसके कभी पुत्र नहीं होगा क्योंकि उसमें पुत्र होने का स्वभाव ही नहीं है।
इस उदाहरण का उपनय यह है कि चार ओरतों के स्थान चार प्रकार के जीव हैं। पुत्र होने के स्वभाव फे स्थान मोक्ष जाने का स्वभाव है। पति के स्थान ज्ञान दर्शन चारित्र समझ लीजिये ! अब इसका शरांश:
१-- पहिला जीव निकट भावी यानी जल्दी मोक्ष जाने वाला है । कारण, मोक्ष जाने का स्वभाव है और ज्ञान दर्शन का सयोग एवं आराधना भी है । ।
२- दूसरा दुर्भावी इसमें मोक्ष जाने का स्वभाव है पर कर्मोदय ज्ञान दर्शन की आराधना का साधन नहीं है । जब कभी आराधना का संयोग मिलेगा तब मोक्ष होगा।
३-तीसरे जातिभव्य के मोक्ष जाने का स्वभाव है पर उसको ज्ञानादि की आराधना का समय ही नहीं मिलता और न वह मोक्ष ही जायगा केवल स्वभाव मात्र है।
४--चौथा अभव्य कि मोक्ष जाने का स्वभाव ही नहीं है उसको ज्ञानादि आराधना का समय ही नहीं मिले कदाचित् समय मिले वो अान्तरिक भावों से नहीं आराधे उसकी मोक्ष भी कभी नहीं होगी।
इस उदाहरण से आप समझ सकते हो कि यह कभी न तो हुआ न होगा कि सब जीव मोक्ष चले जाय । तापस-- इसका क्या कारण है कि जातिभव्य और अभव्य को ज्ञानादि की भागधना का संयोग
नहीं मिले।
मुनि-जीव के आठ कर्मों में एक मोहनीय नाम का कर्म है कि जातिभव्य और अभव्य जीवों के आत्म प्रदेश से कभी हट ही नहीं सकता है । उसके बिना हटे ज्ञानादि की आराधना हो नहीं सकती है। अतः वह मोक्ष जा नहीं सकता है।
तापस---ज्ञान दर्शन चारित्र किसको कहते हैं और इसकी आराधना किस प्रकार होती है ?
मुनि- ज्ञान बस्तु तत्त्व को सम्यक् प्रकार अर्थात यथार्थ समझना उस सम्यक् ज्ञान कहते हैं इसके भी पांच भेद हैं । जैसे कि :
१-मतिज्ञान-जो स्वयं मगज से ज्ञानशक्ति पैदा होनी।
२-श्रुतिज्ञान-दूसरों से सुनना या पुस्तकादि का पठन पाठन करने से ज्ञान होता है ये दोनों ज्ञान ऐसे हैं कि साथ में ही रहते हैं और आपस में एक दूसरे के सहायक भी हैं।
३-अवधिज्ञान-इसके अनेक भेद हैं और यह है भी अतिशय ज्ञान कि इससे भूत भविष्य और वर्तमान की बात जान सकता है पर है मर्यादित । ४-मनपर्यवज्ञान-इस ज्ञान से दूसरे के मन की बात कह सकता है।
[ ज्ञान दर्शन चरित्र का स्वरूप
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org