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किरण १]
श्री बा० देवकुमार : जीवन और विचारधारा
परिडत दल और बाबूदल अथवा नरमदल और गरमदल की पारस्परिक नोकझोंक से विवाद का प्रसार मात्र हो रहा था, समस्याओं के समाधान की कोई रचनात्मक चेष्टा नहीं प्रकट होती थी । स्वार्थमयी व्यापारिक नीति के कारण यह समाज अन्य हिन्दुओं की घृणा का पात्र बन गया था। युग के अनुकूल अपनी संस्कृति की मौलिक विशेषताओं के द्वारा मानवता के विकास में सहायक बनने का उत्साह एकदम लुम हो चुका था । जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में त्याग की अपेक्षा भोगवाद की प्रधानता ही दृष्टिगोचर होती थी ।
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कोयले की खान में हीरे मिलते हैं । श्रभिशप्त जनसमाज पुरुषरत्न उत्पन्न करता है । इस सत्य का ज्वलन्त प्रमाण था पतनोन्मुख जैन जाति में श्रारा नगर के श्रीयुत पं० प्रभुदास जैन का स्मरणीय घराना । संस्कृत साहित्य की अगाध विद्वत्ता, गंभीर शास्त्राध्ययन, उदार स्वभाव, धर्म-निष्ठा और व्रत पालन की दृढ़ता से अनुप्राणित प्रभुदास जी का उज्ज्वल व्यक्तित्व इस जाति का मानों पुंजीभूत कीर्तिस्तंभ था। उनकी जीवन-साधना थी देवालयों और धर्मशालाओं के निर्माण द्वारा धर्मवृद्धि । दीन दुखियों की सेवा, विद्यार्थियों की सहायता और धार्मिक अनुष्ठान इनकी लक्ष्मी के शृंगार थे । श्राज भी काशी में भदैनी घाट पर जिनमन्दिर और धर्मशाला, भगवान् चन्द्रप्रभु स्वामी के जन्मस्थान चन्द्रपुरी में निर्मित मन्दिर और स्वयं श्रारा में प्रतिष्ठित जिनालय इनकी उत्साहपूर्ण जिनभक्ति के सजीव चित्र हैं। चालीस वर्षों तक अनवरत एकाहार का व्रत पालन कर अपनी दृढ़निष्ठा का परिचय देनेवाला जैन समाज का यह उज्ज्वल नक्षत्र चौसठ वर्ष की आयु में परलोक का यात्री बन गया !
फूल अपनी सुरभि बिखेर कर सूख गया, परन्तु समाज उसके फल से वंचित न रहा । योग्य पिता के योग्य पुत्र श्री चन्द्रकुमार जैन ने पिता के चरण चिन्हों को अपने जीवन का पथप्रदर्शक माना । कौशाम्बी में जैन मन्दिर का निर्माण कर इन्होंने भी पिता के कार्य को अग्रसर किया । अभी समाज इस अधकचरे फल के मिष्ट स्वाद से तृप्त होने की श्राशा ही कर रहा था कि काल
ने इसे समय में ही झकझोर कर वृन्त से अलग कर दिया। चौतीस वर्ष की आयु में ही सर्व गुण संपन्न होनहार नवयुवक ने अपने परिवार और समाज दोनों को अन्धकार में भटकने के लिए छोड़कर पितृलोक का अनुसरण किया । इस विमल ज्योति के शेष चिन्ह रह गये थे दो नन्हें से रक्ताभ जिनका भविष्य कभी श्राशा की मुस्कुराहट प्रकट करता तो कभी निराशा के काजल में छिपने की चेष्टा ।
नव बसन्त पूर्ण यौवन को प्राप्त होकर चतुर्दिक उल्लास और मादकता विखेर रहा था । उसके साम्राज्य में प्रकृति अपने समस्त रंगीन वस्त्राभूषणों से सुसज्जित हो भूम रही थी । नवलतिका श्र को सहारा देने वाले वृक्ष रक्तिम किसलयों की सुरभि से वायु को बोझिल कर अपने कायाकल्प का प्रमाण दे रहे थे। ऐसे समय में जब भारत का कोना कोना पतझड़ की उदासीनता को दूर कर