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श्री का० देवकुमार : जीवन और विचारधारा
[ले०-भी प्रो० चन्द्रसेन कुमार जैन, एम० ए० ]
भारतीय इतिहास का वह महान् विष्लव, दो संस्कृतियों का वह भीषण संघर्ष, दो युगों को पृथक् करने वाला यह क्रान्तिकारी बवर डर अपनी रोमाञ्चकारी स्मृति छोड़कर शान्त हो चुका था। देश की धमनियों से प्रवाहित रक्त के फुहारे कुछ काले धब्बे बन कर सूग्व चुके थे। पीछे छट चुके ये गौरव और समृद्धि के चमकीले दिवस । पश्चिम ने पूर्व पर विजय प्राप्त की । पूर्व ने घुटने टेक कर इसे ईश्वरीय वरदान के रूप में स्वीकार कर लिया। मिथ्यादन, प्रारमविस्मरण, शोषण और विलास का नव-शासन प्रारंभ हो गया।
अविद्या, अहंकार, आडंबर और अनाचार के इस देशव्यापी साम्राज्य में जैन जाति ही किस प्रकार अछूती बच सकती थी। निःकषाय मुनियों से वंचित और अल्पज्ञ पंडितों से प्रभावित इस असंगठित समाज के प्रत्येक कार्य अग्नी ही जाति और धर्म को मिटा देने के लिये कृतसंकल हो रहे थे। यश-प्राप्ति की लोलुप लालसा ने इसे परिग्रह के भयंकर दलदल में फँसा दिया था। समाज का अधिकांश भाग धर्म के मूल सिद्धान्तों से अनभिज्ञ रह कर कुछ विधि-विधानों के मिथ्या प्रदर्शन द्वारा श्रात्मकल्याण की आशा में मम था । इधर अंग्रेजी शिक्षा से प्रभावित इने गिने नवयुवक अपनी संस्कृति से आँखे मोड़कर विदेशी श्राचार विचार ही नहीं ग्रहण कर रहे थे, प्राचीन धार्मिक भावना का उपहास कर जातीय गौरव को भी नष्ट कर रहे थे। लक्ष्मी का संकलन और प्रदर्शन ही इस जाति की विशेषता बन गया था, जिसका सारा भाग कुसंस्कारों में व्यय होता था । धार्मिक शिक्षा के लिए न तो कोई व्यक्तगत रुचि थी और न समाज की ओर से कोई संगठित प्रायोजन ही सफल होता था। बही-खाता और चिट्ठी पत्री की योग्यता इस जाति की शिक्षा की सीमा रेखा यः ।
शिक्षा और कला-कौशल से विहीन नारीवर्ग मिथ्याष्टि, पारिवारिक कलह और कुरीतियों का केन्द्र बन गया था। इसी वातावरण में पल कर भावी सन्तति अदूरदर्शी, निकम्मो और भौतिकवादी बनती जा रही थी । वस्त्राभूषण का अनवरत संग्रह इनके जीवन का महानतम उद्देश्य था । धार्मिक आचरण भी उस लक्ष्य के साधन मात्र थे । बाल-विवाह की प्रथा ने समाज में विधवाओं का एक विशाल वर्ग उत्पन्न कर दिया था, जिनका जीवन समाज के स्वनामधन्य ठेकेदारों के स्वार्थ साधन के कारण नारकीय हो रहा था । अन्य धर्मावलम्बियों की कुत्सित रीतियाँ इस समाज में भी घर कर चुकी थीं।
समाज, सभाओं, महामण्डलों और समितियों की भरमार थी, परन्तु योग्य नेता के अभाव में इनका क्षणिक जातीय आवेश केवल वार्षिक अधिवेशनों की वक्तता से आगे नहीं बढ़ पाता था।