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परिग्रह की सीमाएँ
जीवन और आवश्यकता का चोली-दामन-सा सम्बन्ध है । जब तक जीवन है, तब तक मनुष्य आवश्यकताओं से मुक्त हो नहीं सकता । परन्तु आवश्यकताओं को घटाना-बढ़ाना यह मनुष्य के हाथ में है। यदि मनुष्य के मन में इच्छा, आकांक्षा एवं तृष्णा का प्रवाह बह रहा है, तो उसकी आवश्यकताएँ भूत की चोटी की तरह बढ़ती ही जाएँगी । उसके जीवन का अन्त आ सकता है, परन्तु तृष्णा के रूप में अवतरित आवश्यकताओं एवं कामनाओं का अन्त नहीं आ सकता । वह मनुष्य के जीवन को बर्बाद जीवन का अन्त कर देती है, उसे पतन के महागर्त में गिरा |
आ सकता है, देती है।
परन्तु तृष्णा के रूप __परन्तु जब मनुष्य अपनी इच्छाओं में अवतरित पर नियंत्रण कर लेता है, तब वह अपने
आवश्यकताओं जीवन को समेटने लगता है । इच्छा का |
एवं कामनाओं का प्रवाह रुकते ही उसका जीवन सीमित-परिमित
अन्त नहीं आ बन जाता है । फिर वह उन्हीं पदार्थों को
सकता। अपने भोगोपभोग में लेता है, जिनके बिना उसका काम नहीं चलता । यदि पाँच जोड़ी वस्त्र से उसका काम चल सकता है, तो वह उससे अधिक वस्त्र का संग्रह करके नहीं रखेगा । भले ही, कितने ही सुन्दर डिजाइन एवं नयी फैशन के वस्त्र भी क्यों न हो,
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