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तुम सोने के महलों में बैठकर अगर संसार రెండు को त्याग और वैराग्य का उपदेश देते हो, तो | सोने के महलों में यह एक प्रकार का खिलवाड़ है । जिसके बैठकर अगर संसार सामने छप्पन प्रकार के भोजन खाने को रखे को त्याग और हैं और मनुहार हो रही हैं, वह दूसरों को वैराग्य का उपदेश उपवास करने का उपदेश दे- जिन्हें तीन दिन देते हो, तो यह से अन्न का दाना नहीं मिला है, उन्हें वह एक प्रकार का उपवास का महत्व बतलाए, तो वह उपदेश |
खिलवाड़ है । नहीं है, मजाक है । इस प्रकार जनता के मन में शान्ति स्थापित नहीं हो सकती । जनता के मन में विश्वास तभी आएगा, जब उपदेश देने वाला जनता के समक्ष उसी रूप में प्रस्तुत होगा और जनता की भूमिका में आकर सामने मैदान में खड़ा हो जाएगा । तभी जनता की भावना जागेगी और संसार उसके पद-चिह्नों पर चलेगा।
और यही भगवान् महावीर का दृष्टिकोण था । उन्होंने अपनी इच्छा से राजमहलों का त्याग किया और फकीरी बाना धारण किया । भिक्षु का जीवन अंगीकार कर लिया । वस्त्र के नाम पर उन्होनें एक तार भी अपने पास नहीं रखा । यही महान् और ऐच्छिक गरीबी है ।।
बुद्ध ने भी यही किया । उनको भी वैभव में रहते हुए शान्ति नहीं मिली । जब भिक्षु के रूप में आ गए तो शान्ति उनके हृदय में आ विराजी । जनता ने भी उनकी बात को ध्यान पूर्वक सुना- और वह उनके पद चिह्नों पर भी चली ।
मगर उपनिषद् काल के महान् उपदेशक राजा जनक का वैसा प्रभाव जनता पर न हो सका । उपनिषदों में जनक गूंज तो रहे हैं और
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