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अपरिग्रह का मौलिक अर्थ
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भगवान् महावीर ने बताया, अपरिग्रह का सीधा सा अर्थ हैनिस्पृहता, निरीहता । इच्छा ही सबसे बड़ा बन्धन है, दुःख है । जिसने इच्छा का निरोध कर दिया, उसे मुक्ति मिल गई । इच्छा - मुक्ति ही वास्तव में संसार - मुक्ति है । इसलिए सबसे प्रथम इच्छाओं पर, आकांक्षाओं पर संयम करने का उपदेश महावीर ने दिया । बहुत से साधक, जिनकी चेतना इतनी प्रबुद्ध होती है कि वे अपनी सम्पूर्ण इच्छाओं पर विजय प्राप्त कर सकते हैं, महाव्रती - संयमी के रूप में पूर्ण अपरिग्रह के पथ पर बढ़ते हैं । किन्तु इससे अपरिग्रह केवल संन्यास क्षेत्र की ही साधना मात्र बनकर रह जाती है, अतः सामाजिक क्षेत्र में अपरिग्रह की अवधारणा के लिए उसे गृहस्थ धर्म के रूप में भी एक परिभाषा दी गई ।
महावीर ने कहा- सामाजिक प्राणी के लिए इच्छाओं का सम्पूर्ण निरोध, आसक्ति का समूल विलय यदि संभव न हो, तो वह आसक्ति को क्रमशः कम करने की साधना कर सकता है, इच्छाओं को सीमित करके ही वह अपरिग्रह का साधक बन सकता है
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इच्छाएँ आकाश के समान अनन्त हैं, उनका जितना विस्तार करते जाओ, वे उतनी ही व्यापक असीम बनती जाएँगी । और उतनी ही चिन्ताएँ कष्ट, अशान्ति बढ़ती जाएँगी ।
इच्छाएँ सीमित होगी, तो चिन्ता और अशान्ति भी कम होगी । इच्छाओं को नियन्त्रित करने के लिए महावीर ने 'इच्छा परिमाण व्रत' का उपदेश किया । यह अपरिग्रह का सामाजिक रूप भी था । बड़े-बड़े धन- कुबेर श्रीमंत एवं सम्राट् भी अपनी इच्छाओं को सीमित, नियन्त्रित कर मन को शान्त एवं प्रसन्न रख सकते हैं । और साधन - हीन साधारण
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