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वस्तु, परिवार और शरीर परिग्रह हैं भी और नहीं भी । मूलतः वे परिग्रह
नहीं हैं, क्योंकि वे तो बाहर में केवल वस्तु
रूप है । परिग्रह एक वृत्ति है, जो प्राणी के परिग्रह का अर्थ है
अंतरंग चेतना की एक अशुद्ध स्थिति है । उचित-अनुचित का
| अतः जब चेतना बाह्य वस्तुओं में आसक्ति, विवेक किए बिना
मूर्छा, ममत्व (मेरापन) का आरोप करती है आसक्ति रूप में
तभी वे वस्तुएं परिग्रह होती हैं, अन्यथा वस्तुओं को सब
| नहीं । मूर्छा ही वस्तुतः परिग्रह है। ओर से पकड़ लेना, जमा करना। इसका अर्थ है- वस्तु में परिग्रह नहीं,
भावना में ही परिग्रह है । ग्रह में आवश्यकता
एक चीज है, परिग्रह में आसक्ति दूसरी चीज है । ग्रह का अर्थ उचित आवश्यकता के लिए वस्तु को उचित रूप में लेना एवं उसका उचित रूप में ही उपयोग करना । और परिग्रह का अर्थ है- उचित-अनुचित का विवेक किए बिना आसक्ति रूप में वस्तुओं को सब ओर से पकड़ लेना, जमा करना, उनका मर्यादाहीन गलत और असमाजिक रूप में उपयोग करना । क्योंकि वहाँ आसक्ति है ।
वस्तु न भी हो यदि उसकी आसक्ति-मूलक मर्यादा-हीन अभीप्सा है, तो वह भी परिग्रह है । इसीलिए महावीर ने कहा था- मुच्छा परिग्गहो । मूर्छा तथा मन की ममत्व-दशा ही वास्तव में परिग्रह है । जो साधक ममत्व से मुक्त हो जाता है, वह सोना-चाँदी के पहाड़ों पर बैठा हुआ भी अपरिग्रही कहा जा सकता है । वहाँ ममत्व नहीं है । इस प्रकार भगवान् महावीर ने परिग्रह की, एकान्त जड़वादी परिभाषा को तोड़कर उसे भाववादी, चैतन्यवादी परिभाषा दी ।
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