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आवश्यक हैं । सम्भव है कि भोजन की आवश्यकता होने पर साधारण पात्र में, साधारण भोजन ही प्राप्त हो । अब यदि दृष्टि भोजन तक ही सीमित है, तो उसमें सन्तोष हो जाएगा और तृप्ति भी मिल जाएगी । और यह बात भगवान् महावीर के उस दृष्टिकोण से मेल खाती है कि 'जीने के लिए भोजन है,
6 भोजन के लिए जीना नहीं है ।' भगवान् ।
जीने के लिए
भोजन है, भोजन महावीर ने कहा है- जवणट्ठाए भुंजिज्जा।
के लिए जीना जीवन-यात्रा को सुखपूर्वक चलाने के __नहीं है। लिए ही भोजन करना चाहिए किन्तु इस बात में गड़बड़ी तब पैदा होती है, जब जीवन को महत्त्व न देकर, भोजन को अर्थात् भोग-विलास को महत्त्व दिया जाता है । जीवन के लिए भोजन तो चाहिए, वह आवश्यक है; किन्तु मिर्च-मासाला आदि से सम्बन्धित भोजन के जितने भी स्वाद-सम्बन्धी प्रकार हैं, वे सभी अनावश्यक हैं । उनके न होने से भी क्षुधा की पूर्ति हो सकती है । ये सब मिर्च, मसाले और मिष्ठान्न आदि क्षुधा पूर्ति के लिए नहीं, बल्कि जिह्वा के स्वाद की पूर्ति के लिए बनाए जाते हैं । जिहवा के स्वाद की पूर्ति के लिए, यह सब उपक्रम होता है । एक प्रश्न
और भी है कि भोजन के विविध प्रकार तो जीभ के स्वाद की तृप्ति के लिए बनाए गए हैं; किन्तु ये मेज, कुर्सियाँ, चाँदी, सोने के बर्तन आदि तो जिहवा के लिए भी आवश्यक नहीं है । यह सब साज-सज्जाएँ व्यर्थ ही मन के अहंकार के पोषण के लिए होती हैं । मनुष्य अधिकतर अपनी वास्तविक इच्छाओं को अवास्तविक एवं अनावश्यक इच्छाओं से पृथक् नहीं कर पाता है । वह अपने अहंकार के संतोष के लिए अनेक प्रकार की सामग्री जुटाने का प्रयत्न करता है। यदि विश्लेषण करके देखा जाए,
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