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परिग्रह : मूर्छाभाव :
परिग्रह क्या है ? इसके विषय में भगवान् ने अपने प्रवचनों में इस प्रकार कहा है
_ 'वस्तु अपने आप में परिग्रह नहीं है, यदि उसके प्रति मूर्छा-भाव आ गया है तो वह परिग्रह हो गया ।'
'जो व्यक्ति स्वयं संग्रह करता है, दूसरों से संग्रह करवाता है, संग्रह करने वालों का अनुमोदन करता है । वह भव-बन्धनों से कभी मुक्त नहीं हो सकेगा।'
'संसार के जीवों के लिए परिग्रह से बढ़कर अन्य कोई पाश (बन्धन) नहीं है ।'
'धर्म के मर्म को समझने वाले ज्ञानीजन अन्य भौतिक साधनों में तो क्या, अपने तन पर भी मूर्छा भाव नहीं रखते ।'
'धन-संग्रह से दुःख की वृद्धि होती है, धन ममता का पाश है और वह भय को उत्पन्न करता है।'
_ 'इच्छा आकाश के समान अनन्त है, उसका कभी अंत नहीं आता ।' संसार का कारण :
परिग्रह क्लेश का परिग्रह क्लेश का मूल है और अपरिग्रह
मूल है और सुखों का मूल । तृष्णा संसार का कारण है,
अपरिग्रह सुखों का सन्तोष मोक्ष का । इच्छा से व्याकुलता उत्पन्न
मूल है। तृष्णा होती है । सन्तोष बाह्य वस्तु में नहीं, मनुष्य |
संसार का कारण की भावना में है । तन आत्मा के अधीन है,
है, सन्तोष मोक्ष
का। या आत्मा तन के ? भौतिकवादी कहता है
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