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सत्ता, मेरी शक्ति - यह भाषा, यह वाणी परिग्रह - वृत्ति में से जन्म पाती है । बन्धन क्या है ? इस प्रश्न के उत्तर में भगवान् ने कहा- ‘परिग्रह और आरम्भ' । आरम्भ का, हिंसा का जन्म भी परिग्रह में से ही होता है । अतः बन्धन का मुख्य कारण परिग्रह ही माना गया है । मनुष्य धन का उपार्जन एवं संरक्षण इसलिए करता है कि इससे उसकी रक्षा हो सकेगी । परन्तु यह विचार ही मिथ्या है, भ्रान्त है । भगवान् ने तो स्पष्ट कहा है- 'वित्तेण ताणं न लभे पमत्ते ।' धन कभी किसी की रक्षा नहीं कर सकता है । सम्पति और सत्ता का व्यामोह मनुष्य को भ्रान्त कर देता है । सम्पति इच्छा को, सत्ता अहंकार को जन्म देकर, सुख की अपेक्षा दुःख की ही सृष्टि करती है
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सुख का राज - मार्ग :
इच्छा और तृष्णा पर विजय पाने के लिए भगवान् ने कहा- 'इच्छाओं का परित्याग कर दो ।' सुख का यही राजमार्ग है । यदि इच्छाओं का सम्पूर्ण त्याग करने की क्षमता तुम अपने अन्दर नहीं पाते, तो इच्छाओं का परिमाण कर लो । यह भी सुख का एक अर्ध - विकसित मार्ग है ।' संसार में भोग्य पदार्थ अनन्त है । किस-किस की इच्छा करोगे, किस-किस को भोगोगे । पुद्गलों का भोग अनन्त काल से हो रहा है, क्या शान्ति एवं सुख मिला ? सुख तृष्णा के क्षय में है, सुख इच्छा के निरोध में है । सुखी होने के उक्त मार्ग को भगवान् ने अपनी वाणी में अपरिग्रह एवं इच्छा परिमाण व्रत कहा है । यह साधक की शक्ति पर निर्भर है कि वह कौन - सा मार्ग ग्रहण करता है । आखिरी सिद्धान्त तो यह है कि परिग्रह का परित्याग करो । धीरे-धीरे करो या एक साथ करो, पर करो अवश्य ।
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सुख तृष्णा के क्षय में है, सुख इच्छा के निरोध में है ।
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