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भोगोपभोग एवं दिशा - परिमाण :
मानव सुखाभिलाषी प्राणी है । वह अपने सुख के लिए नाना प्रकार के भोगोपभोगों की परिकल्पना के माया जाल में उलझा रहता है । यह भोग - बुद्धि ही अनर्थ की जड़ है । इसके लिए ही मानव अर्थ-संग्रह एवं परिग्रह के पीछे पागल की तरह दौड़ रहा है । जब तक भोग - बुद्धि पर अंकुश नहीं लगेगा, तब तक परिग्रह - बुद्धि से मुक्ति नहीं मिलेगी । इसका उपचार सन्तोष वृत्ति ही है ।
यह ठीक है कि मानव-जीवन भोगोपभोग से सर्वथा मुक्त नहीं हो सकता । शरीर है, उसकी कुछ अपेक्षाएं है । उन्हें सर्वथा कैसे ठुकराया जा सकता है । अतः महावीर आवश्यक भोगोपभोग से नहीं, अपितु अमर्यादित-भोगोपभोग से मानव की मुक्ति चाहते थे ।
उन्होंने इसके लिए भोग के सर्वथा त्याग का व्रत न बताकर ‘भोगोभोग परिमाण' का व्रत बताया है ।
भोग - परिग्रह का मूल है। ज्यों ही भोग यथोचित आवश्यकता की सीमा में आबद्ध होता है, परिग्रह भी अपने आप सीमित हो जाता है । इस प्रकार महावीर द्वारा उपदिष्ट 'भोगोपभोग परिमाण' व्रत में से अपरिग्रह स्वतः फलित हो जाता है ।
महावीर ने अपरिग्रह के लिए दिशा-परिमाण और देशावकासिक व्रत भी निश्चित किए थे । इन व्रतों का उद्देश्य भी आसपास के देशों एवं प्रदेशों पर होने वाले अनुचित व्यापारिक, राजकीय एवं अन्य शोषण प्रधान आक्रमणों से मानव समाज को मुक्त करना था । दूसरे देशों की सीमाओं, अपेक्षाओं एवं स्थितियों का योग्य विवेक रखे बिना भोग - वासना की पूर्ति के चक्र में इधर-उधर अनियन्त्रित भाग-दौड़ करना महावीर के
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