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किसी
जिस मनुष्य के जीवन पर इच्छा और
आसक्ति ने कब्जा
जमा रखा है, उसका जीवन शान्तिमय
और तब तक कोई भी दुःख उसे स्पर्श नहीं कर सकेगा । समभाव के वज्र कवच को धारण कर लेने वाले पर दुःखमय परिस्थिति का कुछ भी असर नहीं पड़ता । क्योंकि दुःख का मूल आसक्ति है ।
इसके विपरीत जिस मनुष्य के जीवन पर इच्छा और आसक्ति ने कब्जा जमा रखा है, उसका जीवन शान्तिमय और सुखमय नहीं बन सकेगा । वह कदम-कदम पर रोता हुआ और झींकता हुआ चलेगा और सिद्धान्त
की हत्या करते हुए चलेगा । वह जीवन में खड़ा नहीं रह सकेगा, वह तनिक भी यह नहीं सोचेगा कि उससे कोई अन्याय अथवा अत्याचार न हो जाये । उसके सामने यह प्रश्न ही उपस्थित नहीं होगा । वह किसी भी अन्याय और अत्याचार के लिए नहीं झिझकेगा और कुछ भी करने से नहीं हिचकेगा ।
और सुखमय नहीं बन सकेगा ।
किसी
अभिप्राय यह है कि परिग्रह को इच्छा के रूप में समझना चाहिए । तमन्ना और लालसा के रूप में समझना चाहिए । जब ऐसा है, तब उसे छोड़ देने के बाद भी उसके लिए यदि लालसा रख छोड़ी है, तो वह परिग्रह ही है । बाहर से और ऊपर से वस्तु का त्याग कर देने पर भी अगर उसकी लालसा का त्याग नहीं हुआ और आसक्ति मन में रह गई, तो भगवान् महावीर का सन्देश है कि वहाँ पर भी परिग्रह है
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वस्तु त्याग दी है, किन्तु वस्तु के प्रति वासना बनी हुई है; रस नहीं निकला है, तो कुछ नहीं बना है । जब तक रस न निकल जाए, कोई चीज पैदा होने वाली नहीं है ।
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