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वैराग्य या नाटक :
बाहरी दबाव से जो त्याग और वैराग्य का आचरण होता है, वह कभी-कभी बड़ा नाटकीय बन जाता है, उसमें लोगों को प्रभावित करने की आकांक्षा पैदा हो जाती है और उसके लिए नाटक रचना पड़ता है, दिखावा करना पड़ता है
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एक बार हम कुछ साधु पालनपुर (गुजरात) से लौटते हुए राजस्थान के सांचौर गाँव में गए, पुराना क्षेत्र था । किसी दूसरी संप्रदाय से प्रभावित था । एक बड़े मुनि अपने शिष्य से बोले - आज गोचरी में ध्यान रखना, छाप डाल के आना, लोग याद रखें कि कोई आत्मार्थी एवं उत्कृष्ट संत आये थे । शिष्य भी बड़ा होशियार था गोचरी को निकला तो बड़ी मीन-मेख लगाने लगा - यह असूझता है, यह यों है, वह यों है । लोग देखकर दंग रह गये कि महाराज ! बस, ऐसे आत्मार्थी साधु तो देखे ही नहीं, कितनी ऊँची क्रिया है ! शिष्य ने आकर गुरुजी से बताया कि महाराज ! आपकी ऐसी छाप डाल दी है कि लोग पिछले सब आत्मार्थियों को भूल गये हैं ।
मुझे यह देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ और हंसी भी आई मैंने कहा - 'यह क्या बात है ? रोज जैसा करते हो, वैसा आज क्यों नहीं किया ? या आज जैसा किया है, वैसा रोज क्यों नहीं करते ?'
इस पर वे बोले - 'हमें रोज-रोज इस गाँव में थोड़ा ही रहना है। आज आये हैं, कल चले जाएंगे। पर लोग याद तो करेंगे कि कोई आत्मार्थी उग्र क्रिया- कांडी साधु आये थे ?”
बात यह है कि यह छाप डालने का रोग सिर्फ आपको ही नहीं, हम साधुओं को भी लग गया है । और इसी कारण आज जीवन में
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