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महारम्भ बताया गया तब उसकी फलश्रुति के अनुसार नरक में जाने की बात भी लोगों के सामने आई । लोगों ने विचार किया परिश्रम भी करें
और फिर नरक में भी जाना पड़े, तो इस प्रकार का गलत धन्धा क्यों करें । इस प्रकार के मिथ्या तों से जनता के मानस को बदलने का प्रयत्न किया गया । परिणामतः जैनों ने कृषि-कर्म का परित्याग कर दिया । अन्यथा भारतीय संस्कृति और विशेषतः जैन संस्कृति में मूलतः अहिंसा का दृष्टिकोण लेकर चला था- यह कृषि-कर्म । अहिंसा और होलिका पर्व :
मैंने आपसे भगवान् ऋषभदेव की बात कही थी । भगवान् ऋषभदेव के युग में कृषि-कर्म एक पवित्र-कर्म समझा जाता था । उस युग के मानव समाज में यह एक बहुत बड़ी क्रांति थी । जब जन-जीवन में नयी क्रांति होती है और जब वह अनेक विघ्न-बाधाओं से निकलकर प्रशस्त पथ पर आगे बढ़ती है, तब जन-जीवन में आनन्द और उल्लास छा जाता है । उस क्रांति का उल्लास और आनन्द होलिका के रूप में हमारे सामने आया । प्रतिवर्ष यह हमारी परम्परा और संस्कृति का अंग बनकर हमारे सामने आता रहता है, आज भी । इस शुभ अवसर पर हम एक-दूसरे से मिल-जुलकर सामाजिक आनन्द का उपभोग करते हैं । होलिका पर्व पर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र सब परस्पर मिलकर आनन्द और उल्लास मनाते हैं । होलिका पर्व के अन्दर किसी प्रकार का भेद-भाव न रहता था । यह हमारी मूल संस्कृति का पावन प्रतीक है । यह पर्व हर इन्सान को प्रेम का पाठ पढ़ाकर मानव-समाज में परिकल्पित ऊँच-नीच के भाव को दूर करता है । वर्तमान समय में इसमें कुछ विकृतियाँ अवश्य आ गई हैं। गन्दी गाली देना और गन्दी हरकत करना, इस पर्व के आवश्यक अंग मान लिए गए हैं । परन्तु यथार्थ में यह ठीक
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