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का रूप भी अद्भुत होता है, वह देखने वाले के चित्त को आकर्षित करता है और साथ ही उसमें सुगंध भी अपरिमित होती है। चौथा पुष्प आक का है, जिसमें न सुन्दरता है और न सुरभि का निवास । वह न देखने में सुन्दर लगता है और न सुनने में । इस प्रकार का पुष्प जन-मन को कभी ग्राह्य नहीं हो सकता । चार प्रकार के मनुष्य :
इसी प्रकार भगवान् महावीर ने मानव-समाज के मनुष्यों का चार भागों में वर्गीकरण किया है। एक मनुष्य वह है, जो श्रुत-सम्पन्न तो है, किन्तु शील-सम्पन्न नहीं है । दूसरा मनुष्य वह है- जो शील-सम्पन्न है, किन्तु श्रुत-सम्पन्न नहीं है । तीसरा मनुष्य वह है- जो श्रुत सम्पन्न भी है और शील-सम्पन्न भी है । चौथे प्रकार का मनुष्य वह है- जो न श्रुत सम्पन्न है और न शील-सम्पन्न ही । मानव समाज का यह वर्गीकरण मनोवैज्ञानिक आधार पर किया गया है । इसका रहस्य यही है कि मानव-समाज में वही मनुष्य सर्वश्रेष्ठ माना जाता है, जो श्रुत-सम्पन्न भी हो और शील-सम्पन्न भी हो । यदि उसके जीवन में उक्त दोनों तत्वों में से एक भी तत्व का अभाव रहता है तो वह जीवन, आदर्श जीवन नहीं रहता । आदर्श जीवन वही है, जिसमें श्रुत अर्थात् अध्ययन एवं ज्ञान भी हो और साथ ही शील अर्थात् सदाचार भी हो । श्रुत और शील के समन्वय से ही, वस्तुतः मनुष्य का जीवन सुखमय एवं शान्तिमय बनता है । यदि मनुष्य के जीवन में श्रुत का अर्थात् ज्ञान का प्रकाश तो हो किन्तु उसमें शील की सुरभि न हो तो वह जीवन श्रेष्ठ जीवन नहीं कहा जा सकता । इसके विपरीत यदि किसी मनुष्य के जीवन में शील तो हो, शील की सुरभि उसके जीवन में मिलती हो किन्तु उसमें श्रुत एवं ज्ञान का प्रकाश न हो तब भी वह जीवन, अधूरा जीवन कहलाता है । एकांगी
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