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एक के उत्थान में
सबका उत्थान है, और एक के पतन में सबका पतन है ।
किसी
पर एक के पतन पर दूसरे का उत्थान नहीं है और यहाँ पर एक के विनाश पर दूसरे का विकास नहीं है, बल्कि एक के उत्थान में सबका उत्थान है और एक के पतन में सबका पतन है तथा एक के विनाश में सबका विनाश है और एक के विकास में सबका विकास है । इस प्रकार जैन - संस्कृति
का समाजवाद एक आध्यात्मिक समाजवाद है ।
वैदिक परम्परा में और वैदिक संस्कृति के इतिहास में यह बताया गया है कि विश्व में व्यक्ति ही सब कुछ है, समाज तो एक व्यक्ति के पीछे खड़ा है । वह व्यक्ति भले ही ईश्वर हो, परब्रह्म हो अथवा विष्णु, ब्रह्मा और रूद्र हो, कोई भी हो, एक व्यक्ति के संकेत पर ही वहाँ सारा विश्व खड़ा होता है । व्यक्तिवाद को इतनी स्वतंत्रता देने का एकमात्र कारण यह है कि वैदिक संस्कृति के मूल में सम्पूर्ण विश्व में एक ही सत्ता है - परब्रह्म । उसी में से संसार का जन्म होता है और फिर उसी में सम्पूर्ण संसार का विलय हो जाता है । संसार बने अथवा बिगड़े किन्तु ब्रह्म की सत्ता में किसी प्रकार की गड़बड़ी पैदा नहीं होती । इससे यह परिज्ञात होता है कि वैदिक परम्परा मूल में व्यक्तिवादी है, समाजवादी नहीं । पुराण-काल में हम देखते हैं कि कभी ब्रह्मा, विष्णु और महेश सभी ओझल हो गए । जो जिस समय शक्ति में आया, लोग उसी के पीछे चलने लगे और लोगों ने अपने संरक्षण के लिए उसी का नेतृत्व स्वीकार कर लिया । क्या वेद में, क्या उपनिषद् और पुराण में सर्वत्र हमें व्यक्तिवाद ही नजर आता है । गीता में भगवान् श्रीकृष्ण ने यहाँ तक कह दिया कि सर्व धर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज 1- "सब कुछ
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