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सर्वोदय और समाज
'समाज और समज' ये दोनों शब्द संस्कृत भाषा के हैं । दोनों का अर्थ है- समूह एवं समुदाय । समाज, मानव-समुदाय के लिए प्रयुक्त किया जाता है और समज शब्द का प्रयोग पशु समुदाय के लिए किया जाता है । समाजीकरण, मानव-जीवन का परमावश्यक सिद्धान्त है । समाज, सामाजिकता और सामाजिक- इन तीन शब्दों का परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध है । जिस व्यक्ति में सामाजिक भावना होती है, उसे सामाजिक कहा जाता है । और सामाजिकता है- उसका धर्म । जिस मनुष्य में, समाज में रहकर भी सामाजिकता नहीं आती, समाजशास्त्र की दृष्टि से उसे मनुष्य कहने में संकोच होता है । मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, यह एक सिद्धान्त है । इस सिद्धान्त का मर्म है कि मनुष्य समाज के बिना जीवित नहीं रह सकता। समाजशास्त्री यह कहते हैं कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, तो इसका अर्थ यह नहीं है कि वह एक सुन्दर, गुणी अथवा सुसंस्कृत व्यक्ति है । व्यक्ति इसी अर्थ में सामाजिक हो सकता है कि उसे मानव सम्पर्क और मानव संगति की इच्छा और आवश्यकता दोनों ही है । एक व्यक्ति किसी परिस्थिति विशेष में भले ही एक दो दिन एकान्त में व्यतीत कर ले, परन्तु सदा-सदा के लिए वह समाज का परित्याग करके जीवित नहीं रह सकता । मनुष्य में यह सामाजिकता उसके जन्म के साथ ही उत्पन्न होती है । और केवल मरण के साथ ही परि-समाप्त होती है। मेरे कहने का अभिप्राय केवल यही है कि मनुष्य
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