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किसी
व्यक्ति की
स्वाधीनता और स्वतंत्रता के नाम पर
समाज के कर्त्तव्यों की तथा मर्यादाओं की बलि नहीं चढ़ाई जा सकती ।
केकी
चाहे परिवार में रहे, चाहे समाज में रहे और चाहे राष्ट्र में रहे, सर्वत्र उसकी एक ही मांग है, अपनी स्वतंत्रता और अपनी स्वाधीनता । पर सवाल यह है कि इस स्वतंत्रता और
स्वाधीनता की कुछ सीमा भी है, अथवा नहीं ? यदि उसकी सीमा का अंकन नहीं किया जाता है तो व्यक्ति स्वच्छन्द होकर तानाशाह बन जाता है । उस स्थिति में समाज और राष्ट्र की सुरक्षा और व्यवस्था कैसे रह सकती है ? इसका अर्थ यह नहीं है
कि मैं व्यक्ति के व्यक्तित्व पर किसी प्रकार का बंधन लगाना चाहता हूँ । मेरा अभिप्राय इतना ही है कि व्यक्ति की स्वाधीनता और स्वतंत्रता रखते हुए भी यह अवश्य करना होगा कि व्यक्ति स्वच्छन्द न बन जाए। दूसरी ओर समाज बिखर जाता है, तो फिर व्यक्ति की स्वतंत्रता और स्वाधीनता का मूल्य भी क्या रहेगा ? राष्ट्र और समाज की रक्षा और व्यवस्था में ही व्यक्ति के जीवन की रक्षा और व्यवस्था है । इस संदर्भ में यह जानना भी परमावश्यक हो जाता है कि व्यक्ति के जीवन में समाज और समाज की मर्यादाओं का क्या मूल्य है ? व्यक्ति की स्वाधीनता और स्वतंत्रता के नाम पर समाज के कर्त्तव्यों की तथा मर्यादाओं की बलि नहीं चढ़ाई जा सकती ।
समाज और संघ :
भारतीय संस्कृति में और भारत की इतिहास - परम्पराओं में अधिकतर व्यक्ति और समाज में समन्वय का ही समर्थन किया गया है । भगवान् महावीर ने तथा भगवान् बुद्ध ने अवश्य ही व्यक्ति की
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