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भारतीय संस्कृति में, भारतीय परम्परा में और भारतीय समाज में, विचार और आचार में, ज्ञान और क्रिया में, धर्म और दर्शन में समन्वय माना गया है । समन्वय के बिना समाज चल नहीं सकता । अहिंसा और अनेकान्त :
आपके सामने अहिंसा की बात चल रही थी। मैंने यह भी बतलाया था कि कृषि-कर्म में हिंसा और अहिंसा को लेकर मध्य युग में किस प्रकार का विवाद चला था, जिसका क्षीण आभास आज भी हमें उस युग के साहित्य में उपलब्ध होता है । विवाद की बात को छोड़कर यदि मूल लक्ष्य पर और मूल बात पर विचार किया जाए, तो निष्कर्ष यही निकलता है कि जैन संस्कृति और जैन परम्परा का मूल आचार अहिंसा ही है । असत्य बोलने में हिंसा होती है, चोरी करने में हिंसा होती है, इसलिए इन सबका परित्याग आवश्यक है । हिंसा के परित्याग के लिए
और अहिंसा के संरक्षण के लिए ही अन्य व्रतों की परिकल्पना की गई है । मुख्य व्रत अहिंसा ही है । यही कारण है कि जैन आचार शास्त्र का मुख्य सिद्धान्त अहिंसा है । इसी प्रकार जैन दर्शन का मुख्य विचार अनेकान्त है । आचार में अहिंसा और विचार में अनेकान्त, यह जैन संस्कृति का मूल स्वरूप है । अहिंसा और अनेकान्त का अर्थ है- जैनधर्म और जैन दर्शन । अहिंसा धर्म है और अनेकान्त दर्शन है । श्रद्धा धर्म है और तर्क दर्शन है । क्रिया धर्म है और ज्ञान दर्शन है । बौद्ध दर्शन के भी दो पक्ष प्रचलित है- हीनयान और महायान । मुख्य रूप से हीनयान आचार पक्ष है और महायान विचार पक्ष है । हीनयान मुख्य रूप में धर्म है और महायान मुख्य रूप में दर्शन एवं तर्क है । सांख्य और योग को लें तो उसमें भी हमें यही तथ्य मिलता है कि सांख्य दर्शन शास्त्र है और योग उसका आचार पक्ष है । यही बात पूर्व मीमांसा और उत्तर
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