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जीवन और अहिंसा __ भारतीय संस्कृति में कृषि का बड़ा महत्व और गौरव माना गया है । प्रारम्भ से ही भारत कृषि प्रधान देश है । आज भी भारत में कृषि-कर्म करने वाले व्यक्तियों की संख्या अधिक है। कृषि अहिंसा की आधार-शिला है । मांसाहार से विरत होने के लिए और सात्विक भोजन की स्थापना के लिए, कृषि का बड़ा ही महत्व है । मांसाहार से बचने के लिए कृषि-कर्म से बढ़कर अन्य कोई साधन नहीं हो सकता । इसी आधार पर भारतीय संस्कृति को, कृषि को, अहिंसा देवता माना गया है । कृषि करने वाले व्यक्ति को वैदिक भाषा में पृथ्वी पुत्र कहा गया है । जैन परम्परा के अनुसार कृषि कर्म के सर्वप्रथम उपदेष्टा भगवान् ऋषभदेव हैं । उन्होंने ही अपने युग के अबोध एवं निष्क्रिय मानव को कृषि-कला की शिक्षा दी थी। उस युग की मानव-जाति के उद्धार के लिए कृषि-कर्म का उपदेश और शिक्षा आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य थी। जैन धर्म में कृषि कर्म को आर्य-कर्म कहा गया है । जैन परम्परा के विख्यात श्रावकों ने स्वयं कृषि-कर्म किया था, उस दृष्टि से भी जैन संस्कृति में कृषि-कर्म का एक विशिष्ट स्थान है । जैन संस्कृति के मूल प्रवर्तकों ने कृषि को आर्य-कर्म कहा था, परन्तु मध्यकाल में आकर कुछ व्यक्तियों ने इसे हिंसामय कर्म करार देकर त्याज्य समझा । जैन संस्कृति आरम्भ, समारम्भ और महारम्भ के परित्याग का उपदेश देती है, यह ठीक है किन्तु हमें यह देखना होगा कि मांसाहार जैसे महारम्भ से बचने के लिए
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