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महाराज ! स्थान की क्या बात कहते हैं। हमें तो पैसा चाहिए । पैसा यदि दोज़ख में भी मिलता है तो हम वहाँ भी दुकान खोल लेंगे । हँस पड़े, हम सब उसकी बात सुनकर । बात भी खूब गजब की कही उसने, बोला- “महाराज, यहाँ बुरा हाल है हमारा, लेकिन पेट है न, उसे तो पालना ही है । उसे पालने के लिए पैसा चाहिए, इसलिए यहाँ घर से इतनी दूर पड़े है । यहाँ आवागमन का भी कोई अच्छा साधन नहीं, आसपास आदिवासियों की बस्ती है । न जाने किस समय क्या गड़बड़ हो जाये, कुछ कह नहीं सकते । पर, पैसा मिलता है, इसलिए प्राण मुट्ठी में लिए यहाँ बैठे हैं ।"
जीवन की यह स्थिति कितनी विचित्र है । मनुष्य पैसे के लिए कितना बड़ा बलिदान करने के लिए तैयार हो जाता है । किन्तु यह बलिदान, यह त्याग, त्याग के लिए नहीं, भोग के लिए है । कामनाओं की पूर्ति के लिए है। जीवन में त्याग के लिए त्याग की भूमिका नहीं है । मन में वासनाओं की, भोग की, - ऐश्वर्य की असीम कामनाएँ उठ रही सुख
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। इच्छा जागृत हो रही हैं । पर स्थिति ऐसी है कि वे सफल नहीं हो पा रही हैं । शक्ति और साधन के अभाव में वे दब जाती हैं । अब आप समझे होंगे कि त्याग की भूमिका कितनी ऊँची है । उसमें इच्छाओं पर नियंत्रण करने की कितनी गहन बात है । इसमें वासनाओं का दास नहीं, स्वामी बनने का संदेश है । जब तक इच्छाओं पर नियंत्रण नहीं होता है, तब तक एक चक्रवर्ती का भी वही हाल है, जो एक गंदी नाली के कीड़े का है । भगवान् महावीर ने कहा
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जब तक इच्छाओं पर नियंत्रण नहीं होता है, तब तक एक चक्रवर्ती का भी वही हाल है, जो
एक गंदी नाली के
कीड़े का है
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