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कोणिक का अहंकार प्रदीप्त हो गया । बोला- 'मैं चक्रवर्ती होने जा रहा हूँ । क्या हुआ, जो बारह हो गए, तेरहवां क्यों नहीं हो सकता ? यदि किसी की भुजाओं में बल है, तो उसे कौन रोक सकता है ? देखो, मेरे पास भी चौदह रत्न हैं, विशाल - वाहिनी है, बड़े-बड़े मुकुटधारी राजा लोग मेरी सेवा में खड़े हैं, मैं चक्रवर्ती क्यों नहीं हो सकता ? मैं चक्रवर्ती दूर हटो । मेरा पथ छोड़ दो ।'
केस
देव ने कहा- कैसा जिद्दी है यह । कितना महत्वाकांक्षी है। उसने फिर समझाया पर आदमी महत्वाकांक्षाओं के तूफान में भटक जाने के बाद जल्दी संभल नहीं सकता । कोणिक ने देवताओं को चुनौती दी । इसका यह परिणाम हुआ कि कोणिक वहीं ढ़ेर हो गया । कोणिक की आत्मा ने शरीर छोड़ा, नरक की राह पकड़ी । अपने ही हाथों अपना सर्वनाश कर डाला - उस इच्छा और अहंकार के पुतले ने । अहंता और ममता- दोनों विकास में बाधक है । सर्वनाश की ओर ले जाते हैं । कोणिक आज हमारे सामने नहीं है और रावण भी नहीं है, जरासंध और दुर्योधन भी नहीं है किन्तु देखना है उनकी वासनाएँ, इच्छाएँ और अहंकार आज हमारे में है या नहीं ।
आदमी महत्वाकांक्षाओं के तूफान में भटक जाने के बाद जल्दी |
संभल नहीं सकता ।
किस
मनुष्य जीवन में जो भी प्रयत्न करता है, वह सुख भोग के लिए करता है, आनन्द के लिए करता है । किन्तु वह आनन्द कब मिल सकता है ? जब मन में आनन्द हो । जिस प्रकार वस्तु परिग्रह नहीं है, उसी प्रकार वस्तु आनन्द भी नहीं है । न साम्राज्य में आनन्द है और न वैभव में। यह सब तो जड़ है, आनन्द चैतन्य है । उपनिषद के ऋषि
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