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विचित्र विसंगति है । चाहिए तो यह था कि शस्त्रास्त्रों की सहायता तत्काल बंद कर सर्वप्रथम पाकिस्तान के सैनिक जुंटा को होश में लाया जाता, उसके क्रूर इरादों को बदला जाता, पश्चाताप के लिए मजबूर किया जाता और बांग्लादेश की पीड़ित जनता के अधिकारों का उचित संरक्षण किया जाता । फिर समस्त प्रवासी लोगों की जान-माल की रक्षा का प्रयत्न किया जाता, और उन्हें जल्दी ही अपनी प्रिय जन्म भूमि में वापस भेजा जाता । कहने की बात नहीं कि बंगबंधु मुजीब को बांग्लादेश के करोड़ों मुस्लिम, ईसाई, हिन्दू, बौद्ध जनता ने अपना नेता चुना था । मुजीब के आवामी दल को अपना पूर्ण समर्थन प्रदान कर बांग्लादेश में लोकतंत्र की स्थापना की ओर कदम बढ़ाया था । राष्ट्रपति याह्या खाँ ने चुनाव से पूर्व वादा किया कि चुनाव के बाद सैनिक शासन समाप्त कर दिया जाएगा और जनता के चुने प्रतिनिधियों के हाथों में पाकिस्तान का शासन सौंप दिया जाएगा। इसी संदर्भ में जब बंगबन्धु मुजीब के दल ने स्पष्ट बहुमत प्राप्त कर लिया तो याह्या खाँ ने उन्हें पाकिस्तान का भावी प्रधानमंत्री कहकर सम्बोधित भी किया था। किन्तु जल्दी ही सत्ता लोलुप निरंकुश फौजी जनरलों के हाथों में खेल गए और समझौता वार्ता का नाटक खेलते-खेलते शक्ति संग्रहकर अचानक निरपराध जनता पर आक्रमण कर खून की होली खेलनी शुरू कर दी । पागलपन की भी एक सीमा होती है, किन्तु मालूम होता है- पाकिस्तान के मन-मस्तिष्क-विहीन शासकों में इसकी भी कोई सीमा-रेखा नहीं है । छह सूत्री कार्यक्रमों की सार्वजनिक घोषणा के आधार पर जिसने चुनाव लड़ा और जिसे भावी प्रधानमन्त्री कहा जाता रहा, वह एक ही रात में देशद्रोही हो गया, गद्दार हो गया और अब उसके लिए गुप्त सैनिक अदालत में इन्साफ का ड्रामा खेलकर फाँसी का फंदा तैयार किया जा रहा है । विवेक-भ्रष्टों का यह पतन है । जो शत-सहस्रमुख होता है, उसकी कोई सीमा-रेखा नहीं होती ।
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