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किसी
भगवान् और
इन्सान के बीच जब शैतान आ जाता है, तो वह इन्सान को भगवान् की ओर से
हटा देता है ।
किसी
तो उसने उनकी बात क्यों नहीं मानी । लेकिन भगवान् और इन्सान के बीच जब शैतान आ जाता है, तो वह इन्सान को भगवान् की ओर से हटा देता है । कोणिक का अहंकार शैतान बन गया । कोणिक की चक्रवर्ती बनने की इच्छा भगवान् के उपदेश से शान्त नहीं हुई । वह इतना तो जानता ही होगा कि भगवान् जो कुछ कह रहे हैं, वह त्रिकाल - सत्य है । संसार की कोई भी शक्ति
उस सत्य को बदल नहीं सकती । किन्तु फिर भी उसका दुस्साहस देखिए कि वह अपना दुःसंकल्प नहीं छोड़ सका । इच्छाओं की घनघोर काली घटा उसके मन और मस्तिष्क पर ऐसी छाई कि सत्य की ज्योति किरण का वह दर्शन ही नहीं कर सका ।
कोणिक ने अपने चक्रवर्ती बनने के स्वप्न को साकार करने की ठान ही ली । चक्रवर्ती के असली रत्न नहीं पा सका, तो उसने नकली चौदह रत्न बना लिए । अपने मित्र राजाओं का दल - बल लेकर वह छह खण्ड विजय करने को निकल पड़ा । विजय - यात्रा करते-करते वह पहुँचता है- वैताढ्य पर्वत की तमिस्रा गुफा के द्वार पर । गुफा के देव ने पूछा- तुम कौन हो ? किसलिए आए हो ? कोणिक ने कहा- मैं चक्रवर्ती हूँ । छह खण्ड विजय करने जा रहा हूँ ।
कोणिक की इस मूर्खता पर देव हँसा और तरस खाकर बोला“राजन् ! लौट जाओ। तुम गलत महत्वाकांक्षाओं के तूफान में भटक गए हो । उचित - अनुचित का विवेक खो बैठे हो ? इस युग के बारह चक्रवर्ती हो चुके हैं । अब तुम कौन से चक्रवर्ती हो ? किस युग के हो ?”
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