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था । इसलिए अन्याय के प्रतिकार के लिए उसे युद्ध करना पड़ा । युद्ध में भी उसने न्याय, नीति और प्रतिज्ञा को नहीं भुलाया । चेटक की प्रतिज्ञा थी कि केवल आक्रांत, अन्यायी पर ही अपना शस्त्र प्रहार करेगा, निरपराध अनाक्रांता पर नहीं । युद्ध नीति के ये मानवीय बंधन ही तो उसे धर्म युद्ध की संज्ञा देते थे । धर्म युद्ध का अर्थ है - कर्तव्य वश युद्ध
करना ।
वैशाली की भूमि पर भयंकर नरसंहार का दृश्य उपस्थित हो गया । चेटक का एक-एक बाण दश दिन में कालीकुमार आदि दशों भाईयों के नरमुण्ड से खेल गया । कोणिक के भी पाँव के नीचे धरती खिसकने लगी । पूर्व भव के मित्र शकेन्द्र और चमरेन्द्र ने कोणिक को समझाया चेटक के सामने तुम्हारी विजय कठिन है और न्याय भी तो तुम्हारे साथ नहीं है । व्यर्थ का अपना आग्रह छोड़ दो । किन्तु कोणिक ने एक नहीं मानी । आग्रह से ही विग्रह की आग भड़कती है। उसने कहा- मुझे उपदेश नहीं, सहायता चाहिए। तुम इस युद्ध में मेरी सहायता करो, विजय तो मेरी भुजाओं में है । कोणिक अपने हठ पर अड़ा रहा । युद्ध में इतना भयंकर नरसंहार हुआ कि जिसकी स्मृति से अब भी हृदय कांप उठता है । रणभूमि मानव रक्त से लाल हो उठी । युद्ध भूमि श्मशान भूमि में बदल गई । कहानी बहुत लम्बी है पर आप समझिए कि इतने भयंकर नरसंहार और छल-बल के आखिरी प्रयत्नों के बाद भी कोणिक के हाथ क्या लगा ? ध्वस्त वैशाली, लाशों के ढ़ेर ! यह विजय पराजय से भी अधिक भयंकर थी । अधिक गर्हित और अधिक परितापमय । प्राचीन इतिहास में
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आग्रह से ही
विग्रह की आग भड़कती है।
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