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स्वास्थ्य का मोह खाने नहीं देता । खाना छोड़ने से उसके मन में प्रसन्नता नहीं, एक प्रकार की दीनता है कि हाय मैं खा नहीं सकता । इसी का नाम विवशता एवं लाचारी है, वह त्याग नहीं है ।
मेरे कहने का आशय यह है कि यह जो त्याग है, वह भोग के लिए भोग का त्याग है । एक दूसरा उदाहरण लीजिए - एक व्यापारी विदेश में चला जाता है, धन कमाने के लिए । वह परिवार का आनन्द छोड़कर जा रहा है । पत्नी, बाल-बच्चे, सगे-स्नेही, माँ-बाप सब का स्नेह और प्यार छोड़कर जाता है और वहाँ वह अनेकों प्रकार की तकलीफें उठाता है । न खाने की सुविधा है और न पीने की । रहने की भी बड़ी दिक्कत है । इस प्रकार बहुत कष्ट सहना पड़ रहा है । तकलीफें सहनी पड़ रही है । एक साधु की तरह ही, अपितु उससे भी ज्यादा दिक्कतें, कष्ट वह झेल रहा है । यह क्या है ? क्या यह तपश्चर्या है, साधना है ? यह सब कुछ नहीं, एक मात्र भोगाभिलाषा है । बाध्यता को त्याग नहीं कहा जाता है ।
हम कलकत्ता वर्षावास के बाद उड़ीसा गये थे । एक विशाल पहाड़ी दर्रे को लांघकर बहुत घने जंगल में गुजरकर पहाड़ की तलहटी में एक छोटे से गाँव में पहुँचे । बियावान जंगल । आसपास आदिवासियों की झोंपड़ियां । अधनंगे और अधभूखे लोग । हाथ में तीर साधे, शिकार की खोज में घूमते जंगली आदिवासी । एक मारवाड़ी भाई का पता मालूम हुआ तो हम लोग वहीं चले गये । देखते ही प्रसन्न होकर कहामहाराज ! पधारिए । बड़े भाग्य से दर्शन मिले । ठहरने को जगह दी, उसने बड़ी श्रद्धा दिखाई। बातचीत चल पड़ी तो हमने कहा- तुमने यहाँ कहाँ आसन जमाया है- पहाड़ों और जंगलों के बीच में बड़ा विचित्र स्थान है यह तो । वह अलवर (राजस्थान ) की तरफ का था, बोला
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