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परिग्रह क्या है ?
एक बात यहाँ समझने की है कि जैन दर्शन में परिग्रह किसको माना है ? जैन दर्शन ने किसी वस्तु या पदार्थ को परिग्रह नहीं माना है । वह तो एक बाहर की चीज है । वह क्या परिग्रह और क्या अपरिग्रह ? वास्तविक परिग्रह है- इच्छा । भगवान् महावीर ने 'मुच्छा परिग्गहो' कहा है । इसी भाव को आचार्य उमास्वाति ने संस्कृत के एक
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सूत्र में 'मूर्च्छा परिग्रहः' कहा है, मूर्च्छा यानी इच्छा, ममता तथा मेरापन जो है, वही परिग्रह है । वस्तु को मन के साथ जोड़ने की जो वृत्ति है और उसमें अपनापन देखने की जो दृष्टि है, वही परिग्रह है । मतलब यह हुआ कि वस्तु परिग्रह नहीं, इच्छा परिग्रह है । इच्छा को ही जैन दर्शन ने अविरति कहा है । विरति का अर्थ है विरक्ति, उदासीनता, इच्छा का संयम । और जहाँ इच्छा का संयम नहीं है, वहाँ विरक्ति नहीं है । अविरति का सूक्ष्म स्वरूप समझाते हुए आचार्यों ने कहा है- एक ओर गन्दगी का कीड़ा है, जो इधर-उधर गन्दी नाली में कुलबुलाता हुआ अपना जीवन गुजारता है और दूसरी ओर एक चक्रवर्ती है, जो छह खंड के साम्राज्य का स्वामी है । इन दोनों में परिग्रह किसका ज्यादा है और किसका कम है ? आप कहेंगे, कीड़े के पास है ही क्या ? कुछ ही क्षणों का जीवन है, उसमें भी नन्हा सा क्षीण शरीर । आगे-पीछे उसके पास संपत्ति के नाम पर है ही क्या ? और चक्रवर्ती का विशाल वैभव साम्राज्य, ऐश्वर्य । इन दोनों की तुलना कैसी ? यही तो जैन दर्शन का समतावाद है कि दोनों को एक ही भूमिका पर खड़ा करके देखा गया है । अविरति दोनों में बराबर है । कीड़े में भी और चक्रवर्ती में भी । क्योंकि इच्छाओं का नियंत्रण करने की कला न चक्रवर्ती के पास है और न ही कीड़े के पास । अतः वस्तु नहीं, वस्तु की मूर्च्छा को ही आचार्य ने परिग्रह कहा है ।
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