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__इच्छा परिमाण का तात्पर्य है- हमारी इच्छाओं का पृथक्करण और उचित सीमा-निर्धारण । मन में जो इच्छाएँ उभरती हैं, उनमें आवश्यक कितनी है और अनावश्यक कितनी है; साधक के लिए यह जानना बहुत जरूरी है । कितनी ही आशाएँ ऐसी होती है, जो दुराशा मात्र होती हैं, जीवन से उनका प्रत्यक्ष सम्बन्ध नहीं होता, जीवन में उनकी कोई उपयोगिता और सार्थकता नहीं होती । वे आशाएँ रामायण के स्वर्ण-मृग की तरह बहुत लुभावनी होती हैं, जो मनुष्य के मन को अपने मायावी मोहक रूप में उलझाकर भटकाती हैं, किन्तु कभी उसके हाथ नहीं लगतीं । इसलिए हमें पहले अपनी इच्छाओं का विश्लेषण करना होगा । आवश्यक क्या है और अनावश्यक क्या है ? इस पृथक्करण के बाद अनावश्यक का त्याग ही जैन परिभाषा में- 'इच्छा-परिमाण' व्रत है । इसका स्पष्ट अर्थ यह है कि मानव-मन में जो असीम इच्छाएँ हैं, उनको सीमित करना, इच्छाओं पर नियन्त्रण करना । इच्छाएँ बेलगाम घोड़े की तरह दौड़ती
आशाएँ रामायण के रहती हैं, बिना अंकुश के हाथी की तरह
स्वर्ण-मृग की तरह टकराती रहती हैं । उन पर जब आवश्यक
बहुत लुभावनी होती लगाम लग गई, अंकुश लग गया, तो वे |
। हैं, जो मनुष्य के सीमित हो गयीं, चूंकि इच्छा ही परिग्रह को | मन को अपने जन्म देती है इस प्रकार से तो इच्छा स्वयं मायावी मोहक रुप ही परिग्रह है, इच्छा के सीमित होने से | में उलझाकर परिग्रह स्वयं ही सीमित हो जाता है । इसी | भटकाती हैं, किन्त को इच्छा परिमाण कहा गया है । इच्छाओं | कभी उसके हाथ का सर्वथा निरोध तो गृहस्थ जीवन में संभव नहीं लगती। ही नहीं है।
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