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बहुरूपियापन आ गया है । बाहर-भीतर में अंतर आ गया है । वैराग्य, वैराग्य नहीं रहकर नाटक बन गया है । जीवन की एकरूपता कब :
भगवान् महावीर के समय में भी साधना के क्षेत्र में यह द्वैध चल रहा था । इस द्वैध को समाप्त करने के लिए ही उन्होंने आत्म दृष्टि दी । उन्होंने कहा- जब साधक कोई भी तप, क्रिया एवं साधना अपनी आत्मा के लिए करेगा तथा उसमें आत्म दृष्टि रहेगी, तो वह जीवन में कभी पाखंड नहीं कर सकेगा । जो रूप उसका नगर के चौराहे पर देखने को मिलेगा, वही रूप एकांत कुटी में भी मिलेगा- 'सुत्ते वा जागरमाणे वा, एगओ वा परिसागओवा'
सोते और जगते में, अकेले और जन परिषद में, उसके जीवन में कोई अंतर नहीं |
जब साधक का दिखाई देगा, कोई बहुरूपियापन नहीं
वैराग्य अन्तः स्फुरित
होगा, भीतर से मिलेगा। चूंकि वह जो कुछ करेगा, वह अपने लिए करेगा। अपनी आत्मा के लिए करेगा न
ज्योति जलेगी, और कि छाप डालने के लिए, उसका रूप जैसा
वही ज्योति वस्तुतः भीतर होगा, वैसा ही बाहर होगा और जैसा
उसके समस्त जीवन बाहर होगा, वैसा ही भीतर में होगा । जहा
को आलोकित अंतो तहा बाहिं, जहा बाहिं तहा अंतो । यही
करती रहेगी। उसका आदर्श होगा । वह जैसा बोलेगा वैसा ही करेगा- जहावादी तहाकारी।
मैं समझता हूँ साधक जीवन का यह सर्वोत्तम रूप है, सच्चा चित्र है । किन्तु यह स्थिति तब ही आ सकती है, जब साधक का वैराग्य
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