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मैं कह रहा था कि बुराई को छोड़ने तथा निभाने के जो ये हेतु हैं, वे गलत हैं, इन्हें बदलना होगा । इन पुराने मूल्यों की जगह दृष्टि के नये मूल्य स्थापित करने होंगे।
मैंने एक मुनिजी को देखा - अपने शिष्य को कह रहे थे- 'अरे भाई ! यह क्या कर रहा है । श्रावक क्या कहेंगे।'
मैंने उनसे कहा- “महाराज ! आपने शिष्य को गलती करने से रोका, यह तो ठीक है, किन्तु रोकने का जो हेतु दिया, वह गलत है । शिष्य को परिबोध देने का यह तरीका ठीक नहीं है । श्रावक क्या कहेंगेइस बात से आपने उसमें श्रावकों से छुपकर गलती करने की वृत्ति पैदा कर दी । आपको कहना चाहिए था कि अरे भाई ! तेरी आत्मा क्या कहेगी ?' बाहर के दबाव से रोकने का मतलब हुआ- वैराग्य नहीं जगा, आत्म-साक्षी की भावना पैदा नहीं हुई । और जब तक आत्म-साक्षी की भावना नहीं जगेगी, तब तक वह अपनी भूल को, वृत्तियों को निर्मूल करने का, निष्ठा के साथ प्रयत्न नहीं कर पाएगा ।
कभी-कभी मैं सोचता हूँ और एक-दो बार कहा भी है कि हम बाहरी आधार पर जो त्याग की बात कहते हैं, वह मौलिक नहीं है । धूम्रपान और मद्यपान का निषेध हम करते हैं, उसका नैतिक आधार तो ठीक है, किन्तु तत्त्वतः हमारा अधिक आधार भौतिक है । हम उसके त्याग में शरीर को हानि पहुँचने का हेतु देते हैं, धन की बर्बादी का तर्क देते है, यह सब भौतिक तर्क है, भौतिक तर्क के आधार पर त्याग का महल खड़ा करना, ठोस काम नहीं है, बहुत से लोग स्वास्थ्य बनाये रखने के लिए भी धूम्रपान करते हैं, मद्य पीते हैं । इसलिए मैं सोचता हूँ, इन वृत्तियों को बदलने के लिए आत्मदृष्टि जगनी चाहिए । हमारा मूल्यांकन आत्मा के आधार पर होना चाहिए ।
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