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कारण मौजूद हों, विषयों के चैतन्य होने का वातावरण सामने हो, उन परिस्थितियों में भी यदि मन शांत रहता है, वृत्तियाँ व विषय-भाव जागृत नहीं होते हैं, मन में मोह की, क्रोध व अहंकार की लहर पैदा नहीं होती है, तो समझना चाहिए कि वह शान्त है, विरक्त है और उसका वैराग्य ऊपर से ओढ़ा हुआ नहीं, अन्तर से जगा हुआ है। उसकी विरक्ति, भय तथा प्रलोभन से नहीं जगी है, अपितु विवेक से जगी है ।
भय से शान्त रहना- फिर चाहे वह गुरु का भय हो, समाज का भय हो, राज का भय हो या डंडे का भय हो- सच्चा वैराग्य नहीं है । भय से तो पशु भी संयत रहकर चल सकता है। आप देखते हैं, पशु जंगल में चरने को जाते हैं, दोनों ओर हरे-भरे खेतो में धान की बालें लहरा रही हैं, खाने को जी ललचाता है, मुँह में पानी छूटता है, फिर भी
वह इधर-उधर मुँह नहीं मार कर सीधा चला
जा रहा है । क्या यह उसका संयम है ? क्या भय व दबाव के
वह रोगी बन गया है ? नहीं, यह संयम नहीं कारण हमारे भीतर
है, भय है । ग्वाले के डंडे का भय है, इस जो शान्ति आती है,
कारण वह शान्त होकर सीधा चल रहा है । वह सच्चा वैराग्य नहीं, नकली
। मैं आपसे कह रहा था कि भय व वैराग्य है।
दबाव के कारण हमारे भीतर जो शान्ति आती है, वह सच्चा वैराग्य नहीं है, नकली
वैराग्य है और मैं उस नकली वैराग्य को वैराग्य नहीं, दैन्य एवं मजबूरी कहता हूँ । मूल्य और तर्क बदलने होंगे :
वर्तमान में हमारे साधना-क्षेत्र में जो विचार-पद्धति और दृष्टि
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