________________
दीपक जलता - जलता बुझ गया, लौ शांत हो गई, तो वह लौ कहाँ गई ? क्या नीचे चली गई या ऊपर अंतरिक्ष में विलीन हो गई ? या किसी पूर्वादिक दिशा में चली गई ? या किसी विदिशा में विलीन हो गई ? कहीं भी नहीं गई। तेल समाप्त हो गया और बस वहीं बुझ गई । निर्वाण को प्राप्त हो गई ।
बौद्ध दर्शन आत्मा के सम्बन्ध में भी इसी दृष्टि को लेकर कहता है कि राग-द्वेष की स्निग्धता के कारण अनादिकाल से यह हमारी आत्मा का दीपक जलता आ रहा है, जलते जलते राग-द्वेष एवं क्लेश का तेल समाप्त हो गया, तो वह आत्मा (चेतना) की लौ बुझ गई, लौ बुझते ही ज्ञानी ( आत्मा ) कहीं भी इधर-उधर नहीं गया, वहीं निर्वाण को प्राप्त हो गया । निर्वाण शब्द का जैन परम्परा में अर्थ होता है - निष्कषाय भाव ।
जैन दर्शन बौद्ध दशर्न की भाँति आत्मा का विलय होना नहीं मानता । निर्वाण के सम्बन्ध में उसका बहुत स्पष्ट और स्वतंत्र चिंतन है । यहाँ पर मैं अभी आपको इतना ही बताना चाहता हूँ कि जैन दर्शन ने भी निर्वाण का एक मुख्य अर्थ बुझ जाना माना है । जब तक राग-द्वेष की लौ बुझ नहीं जाती, कषायों की अग्नि जल रही है; वह बिल्कुल शांत नहीं हो जाती, तब तक निर्वाण नहीं हो सकता । राग-द्वेष की लौ बुझ गई तो आत्मा अपने विशुद्ध स्वरूप में आ जाती है, अपने मूल रूप की प्राप्ति कर लेती है और यही निर्वाण है, यही मोक्ष है। निर्वाण आत्मा का बुझ जाना नहीं, बल्कि राग-द्वेष का बुझ जाना निर्वाण है ।
मैं आपसे कह रहा था कि हमें निर्वाण की ओर बढ़ना है, मोक्ष प्राप्त करना है, तो राग-द्वेष की इन वृत्तियों को दबाने की नहीं, बुझाने की आवश्यकता है । आन्तरिक स्फुरणा और अन्तर्जागरण के आधार पर
203